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रविवार, अक्टूबर 24
रविवार, सितंबर 19
एक हँसी भीतर सोयी है
एक हँसी भीतर सोयी है
रुनझुन-झुन धुन जहाँ गूंजती
एक मौन भीतर बसता है,
मधुरिम मदिर ज्योत्सना छायी
नित पूनम निशिकर हँसता है !
निर्झर कोई सदा बह रहा
एक हँसी भीतर सोयी है,
अंतर्मन की गहराई में
मुखर इक चेतना सोयी है !
जैसे कोई पता खो गया
एक याद जो भूला है मन,
भटक रहा है जाने कब से
सुख-दुःख में ही झूला है तन !
ज्यों इक अणु की गहराई में
छिपी ऊर्जा है अनंत इक,
एक हृदय की गहराई में
छिपा हुआ है कोई रहबर !
शनिवार, जून 15
कुछ ऐसा है कि
कुछ ऐसा है कि
आँखें बाहर देखती
हैं
मन संसार की
सुनता है
कान शब्दों में
डूबे हैं
और वह भीतर बैठा
है !
फिर इसमें कैसा
आश्चर्य ?
हम कभी उससे मिले
नहीं...
अजनबियों के साथ
ही जीवन बिताया
तभी संग रहकर
सबके.. सबने खुद को
नितांत अकेला ही
पाया !
इसको कभी उसको
अपना भी बनाया
पर अपना सा जहाँ
में.. एक ना आया
जिसकी तलाश है वह
तो कहीं और है
दूर है वहाँ
से..अपना जहाँ ठौर है !
फूलों को सराहा
निर्झरों को चाहा
कभी झलक मिली एक
पलकें भी मुंदीं
एक किरण रोशनी..
जाने क्या कर गयी
उस ने ही शुभ घड़ी
भेजा था पैगाम
सीता का राम वह
या राधा का श्याम !
रविवार, अगस्त 27
किसका रस्ता अब जोहे मन
किसका
रस्ता अब जोहे मन
तू गाता
है स्वर भी तेरे
लिखवाता नित गान अनूठे,
तू ही गति है जड़ काया में
सहज प्रेरणा, उर में पैठे !
किसका रस्ता अब जोहे मन
पाहुन घर में ही रहता है,
हर अभाव को पूर गया जो
निर्झर उर में वह बहता है !
तू पूर्ण
हमें पूर्ण कर रहा
नहीं
अज्ञता तुझको भाती,
हर लेता
हर कंटक पथ का
स्मृति
अंतर की व्यथा चुराती !
तिल भर
भी रिक्तता न छोड़े
अजर उजाला बन कर छाया,
सारे खन्दक, खाई पाटे
समतल उर को कर हर्षाया !
इक कणिका
भी अंधकार की
तुझ
ज्योतिर्मय को न सुहाती,
एक किरण
भी हिरण्यमय की
प्रतिपल
यही जताने आती !
रविवार, जुलाई 2
पा परस उसका सुकोमल
पा परस उसका सुकोमल
बह रहा है अनवरत
जो
एक निर्झर
गुनगुनाता,
क्यों नहीं उसके
निकट जा
दिल हमारा चैन
पाता !
झूमती सी गा रही
जो
हर कहीं सोंधी
बयार,
पा परस उसका
सुकोमल
क्यों न समझे
झरता प्यार !
निकट ही जो शून्य
बनकर
बन अगोचर थाम
रखता,
भूल जाता बेखुदी
में
क्यों न उसका मान
रखता !
जो बरसता प्रीत
बनकर
संग है आशीष बनकर,
क्यों नहीं नजरें
हमारी
चातकी सी टिकी
उसपर !
मंगलवार, जनवरी 3
कौन बहाए नदिया निर्झर
कौन बहाए नदिया निर्झर
कुह कुह कलरव भ्रमरों के स्वर
मर्मर राग भरे हैं भीतर,
कौन सजाए कोमल झुरमुट
कौन बहाए नदिया निर्झर !
पुलक चकित शावक के दृग में
गतिमय मृगदल अति सुरम्य,
रूप-रंग विचित्र सृजे हैं
एक अनोखा लोक अरण्य !
गहन शांति में सोयी हो ज्यों
नीरव तट पर मौन धरे,
बही ज्योत्स्ना पूर्ण चन्द्र से
तपती भू का ताप हरे !
एक योजना से चलती है
गुपचुप-गुपचुप सारी क्रीड़ा,
पटाक्षेप उसी दिन होगा
काल हरेगा सारी पीड़ा !
गुरुवार, अक्टूबर 30
प्राणों में बसंत छाएगा
प्राणों में बसंत छाएगा
फूल चढ़ाए जाने कितने
फिर भी दूर रहा वह प्रियतम,
प्राणों में बसंत छाएगा
अर्पित होगी जिस पल धड़कन !
कोरा कोरा नाम जपा था
फिर कैसे रस उपजे बाड़ी,
उससे भी तो जग ही माँगा
निर्झर बहा न विकसी क्यारी !
वह तो लुटने को है आतुर
यहाँ जमाए अपनी धूनी,
कैद किया सीमा में खुद को
हर कोई बन गया अलूनी !
कतरा कतरा रस में भीगा
रग रग में बह रहा छंद सा,
मंद स्वरों में रुनझुन गूँजे
जैसे झरता फूल गंध सा !
क्यों फिर दूर रहे जग उससे
भेद न जाने विस्मित अंतर,
जहाँ सुखों की लहर दौड़ती
वहाँ गमों सा लगे समुन्दर !
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