बुधवार, अगस्त 23

अमृत बन कर वह ढलता है


अमृत बन कर वह ढलता है

उससे परिचय होना भर है
कदम-कदम पर वह मिलता है,
उर का मंथन कर जो पाले
परम प्रेम से मन खिलता है !

भीतर के उजियाले में ही
सत्य सनातन झलक दिखाता,
कण-कण में फिर वही छिपा सा 
साँस-साँस  में भीतर आता !

पहले आँसू जगत हेतु थे
अब उस पर अर्पित होते हैं
अंतर भाव पुष्प माला बन 
अंतर के तम को धोते हैं !

पात्र अगर मन बन पाए तो
अमृत बन कर वह ढलता है,
हो अर्पित यदि हृदय पतंगा
ज्योति बना अखंड जलता है !

शुभ संकल्प उठें जब मन में
भीतर इन्द्रधनुष उगते हैं,
सुंदरता भी शरमा जाये
अमल सहस्र कमल खिलते हैं !

5 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संकल्पों के आधार पर जो इन्द्रधुनष हमारे भीतर उगते हैं, उसी अनुभव की झांकी दिखाती यह कविता।

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    1. कविता के मर्म को परखने के लिए स्वागत व आभार विकेश जी !

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बलराम जाखड़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. सत्य ! उससे परिचय होना भर है !
    फिर तो हम उसकी ओर एक कदम बढ़ाएँ वह स्वयं दौड़कर आता है मिलने । जीवन में इसी सत्य का अनुभव अनेकों बार हुआ है।

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    1. आपके सुखद अनुभव को पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है, स्वागत व आभर मीना जी !

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