सोमवार, अक्तूबर 29

मन माटी से जैसे कोई


मन माटी से जैसे कोई


ऊँचे पर्वत, गहरी खाई
दोनों साथ-साथ रहते हैं,
कल-कल नदिया झर-झर झरने
दोनों संग-साथ बहते हैं !

नीरव जंगल, रौरव बादल
दोनों में ना अनबन कोई,
शिव का तांडव, लास्य पार्वती
दोनों में ही प्रीत समोई !

गीत प्रीत के, सहज जीत के
चलो आज मिल कर गाते हैं,
 नित्य रचे जाता नव संसृति 
उस अनाम को जो भाते हैं !

थिर अंतर में शब्द किसी का
लहरों का वर्तुल बन चहके,
मन माटी से जैसे कोई
अंकुर फूट लता बन महके !

भीतर-बाहर एक हुआ सब
सन्नाटा आधार सभी का,
मौन अबूझ शब्द हैं सीमित
दोनों में आकार उसी का !


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