फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा
नव बसंत का
स्वागत करने
जग को अपनेपन से
भरने
उस अनंत के रंग
समेटे
हर दर बन्दनवार
सजाना होगा !
सृष्टि सुनाती
मौन गीत जो
कण-कण में छुपा
संगीत जो
आशा के स्वर मिला
सहज ही
प्रतिपल नूतन राग
सुनाना होगा !
अम्बर से रस धार
बह रही
भीगी वसुधा वार
सह रही
श्रम का स्वेद
बहाकर हमको
नव अंकुर हर बार
खिलाना होगा !
टूटे मत विश्वास
सदय का
मुरझाये न स्वप्न
हृदय का
गहराई में सभी
जुड़े हैं
भाव यही हर बार
जताना होगा !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 30 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन तीसरा शहादत दिवस - हवलदार हंगपन दादा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंविश्वास जगाती पहल
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-05-2019) को "बन्दनवार सजाना होगा" (चर्चा अंक- 3350) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....., सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सारगर्भित और अंतस को छूती अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंटूटे मत विश्वास सदय का
जवाब देंहटाएंमुरझाये न स्वप्न हृदय का
गहराई में सभी जुड़े हैं
भाव यही हर बार जताना होगा
बेहतरीन रचना....
स्वागत व आभार कामिनी जी !
हटाएंनिश्चित रूप से "गहराई में सब जुड़े हैं".
जवाब देंहटाएंजुड़े ही रहें.