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बुधवार, अक्टूबर 21

कुछ अपने दिल की बात करो

 कुछ अपने दिल की बात करो 

तुम दूजों की बातें सुनते 

उनके रंग में नहीं रंगो,

कुछ करो शिकायत निज दुःख की 

कुछ अपने दिल की बात करो !


हो अद्वितीय पहचान इसे 

साहस खोजो एकांत चुनो,

निज गरिमा को पहचान जरा 

जग में सुवास बन कर बिखरो !


वह रब हर इक में छुपा हुआ 

जगने की राह सदा देखे, 

जो उगे नितांत तुम्हारे उर  

उन सपनों को साकार करो !


पहले मन को खंगाल जरा 

कुछ हीरे-मोती जमा करो, 

फिर उन्हें चढ़ाकर चरणों में 

निज भावों का आधान करो !


जो गहराई से प्रकटेगा

संगीत वही कोरा होगा, 

यदि रंग किसी का नहीं चढ़े 

वह गीत तुम्हारा ही होगा !


मंगलवार, अक्टूबर 1

अबोला


अबोला

कितनी शांति है घर में
जब से तुमने अबोला धर लिया है
कोई टोका-टाकी नहीं बात-बात पर
नहीं खड़े रहते अब सिर पर चाय, खाने के वक्त में
एक मिनट की भी देरी होने पर
अब चुपचाप स्वयं ही ले लेते हो समझदार व्यक्ति की तरह
अब लिखने का वक्त भी मिल जाता है और पढ़ने का भी
घर में सब धीरे-धीरे बातें करते हैं
अब कुछ सिद्ध नहीं करना है किसी को
जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारना है
सो स्वीकार लिया है तुम्हारे मौन को सहज होकर
अब नहीं बढ़ती दिल की धड़कन इस ख़ामोशी पर
क्योंकि बचाती है कितने ही छोटे-छोटे भयों  
और बेवजह की हड़बड़ी से
 अब घटती हैं शामें धीरे-धीरे
अब होती हैं रातें भी सुकून भरी
अब दौड़ नहीं लगानी पडती हर बार तुम्हारे साथ चलने की
अब सब कुछ चल रहा है जैसे उसे होना चाहिए सहज अपने क्रम से
तुम्हें भी अवश्य ही भा रहा होगा यह मौन
क्योंकि जोर से कहे वे शब्द कर जाते होंगे आहत तुम्हें भी तो
अति आग्रह से की गयी फरमाइश या आदेश
भर जाता होगा तुम्हें भी तो असामान्य उत्तेजना से
ईश्वर से प्रार्थना है शांति मिले तुम्हें अपने भीतर
ताकि सीख लो कि ऐसे भी जिया जाता है
रेल की पटरियों की तरह समानांतर एक दूसरे के
बिना उलझे और बिना उलझाए
करते हुए सम्मान अन्य की निजता का
कितना अच्छा हो यदि खत्म भी हो जाये तुम्हारा अबोला
 सिलसिला चलता रहे ऐसा ही घर का !

शुक्रवार, सितंबर 16

आसमान में तिरते बादल

आसमान में तिरते बादल

खुली हवा में शावक बनकर
दौड़ लगाते क्यों न जीयें,
एक बार फिर बन के बच्चे
वर्षा की बूंदों को पीयें !

नाव चलायें पानी में इक
इक्कड़-दुक्कड़ भी खेलें,
आसमान में तिरते बादल
देख-देख हर्षित हो लें !

तोड़ के सारे बंधन झूठे
नजर मिलाएं मुक्त गगन से,
मन को जिन पहरों ने बांधा
उन्हें जला दें प्रीत अगन से !

थोड़े से हों नियम-कायदे
निजता का हो वरण सदा,
मीत बना लें सारे जग को
सीखें शिशु से यही अदा !

सोमवार, अक्टूबर 31

निजता में उसको पा जाये


निजता में उसको पा जाये

धन कमाता चैन गंवा कर
चैन कमाता धन गंवाकर,
कैसा अद्भुत प्राणी मानव
रह जाते दोनों खाली कर !

श्वास श्वास में भर सकता था
बड़े परिश्रम से वह पाता,
सहज ही था जो मिला हुआ
दुगना श्रम कर उसे मिटाता !

खेल समझ के जीवन कोई
मोल कौडियों बेच रहा है,
मुँह लटकाए बोझ उठाये
दूजा पीड़ा झेल रहा है !

कहीं हो रही भूल है भारी
निज पैरों पर चले है आरी
तज हीरे कंकर घर लाते
करें अँधेरे की तैयारी !

भीतर जो चल रहा युद्ध है
भाग रहा है उससे मानव,
धन, यश एक बहाना ही है
बचने का भीतर जो दानव !  

खुले आँख तो भ्रम मिट जाये
उत्सव जीवन में छा जाये,
ढूँढ रहा जो मानव जग में
निजता में उसको पा जाये !


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