निकट समंदर बहता जाता
जाग-जाग कर फिर सो जाता
नींदों में मन स्वप्न दिखाता,
रंग-रूप-रस-गंध खान में
निज आनंद छुपा रह जाता !
घूँट- घूँट भर तृप्त हो रहा
निकट समंदर बहता जाता,
मुक्त गगन की याद न आए
पिंजरे में ही दौड़ लगाता !
कैसा भूला भ्रम में खुद को
वंचित हुआ स्वर्ग के सुख से,
इंद्रधनुष को सत्य मानकर
चला उसे है धारण करने !
ज्यों सीप में चांदी का भ्रम
मृग मरीचिका मरुथल में है,
पानी मथने में नहीं सार
कहाँ कूप में गंगाजल है !
अनजाने दुख धूम्र उठाते
ज्योति ज्ञान की बुझ-बुझ जाती,
एक ही माँ के जाए दोनों
देख-देख कोई मुस्काता !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-11-2020) को "आवाज़ मन की" (चर्चा अंक- 3882) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
-- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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