मंगलवार, नवंबर 10

निकट समंदर बहता जाता

निकट समंदर बहता जाता


जाग-जाग कर फिर सो जाता

नींदों में मन स्वप्न दिखाता,

रंग-रूप-रस-गंध खान में 

निज आनंद छुपा रह जाता !

 

घूँट- घूँट भर तृप्त हो रहा

निकट समंदर बहता जाता,

मुक्त गगन की याद न आए

पिंजरे में ही दौड़ लगाता !

 

कैसा भूला भ्रम में खुद को

वंचित हुआ स्वर्ग के सुख से,

इंद्रधनुष को सत्य मानकर

चला उसे है धारण करने !

 

ज्यों सीप में चांदी का भ्रम

मृग मरीचिका मरुथल में है,

पानी मथने में नहीं सार

कहाँ कूप में गंगाजल है !

 

अनजाने दुख धूम्र उठाते

ज्योति ज्ञान की बुझ-बुझ जाती,

एक ही माँ के जाए दोनों

देख-देख कोई मुस्काता !

  

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-11-2020) को   "आवाज़ मन की"  (चर्चा अंक- 3882)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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