परिचित जो अंतर पनघट से
जग जैसा है बस
वैसा है
हर नजर बताती
कैसा है
कोई इक बाजार
समझता
कोई खालिस प्यार
समझता
विकट किसी को
सागर जैसा
कोई धारे गागर
जैसा
जग तो अपनी राह
चल रहा
नादां मन स्वयं
को छल रहा
कोई फूलों को
चुन लेता
दूजा काँटों को
बुन लेता
ताज बनाकर सिर
पर पहने
आँसू बहा तुष्टि
भर लेता
जग में दानव
रहते आए
देव बहिष्कृत
होते आए
देवों को इक सबल
बनाता
दूजा रह विरक्त
छुप जाता
जगत किसी को
बंधन जैसा
कोई निशदिन गीत
सुनाता
वही पार उतरा इस
तट से
परिचित जो अंतर
पनघट से
जग की चिंता कौन
करे अब
जगपति की वह शरण
गहे जब
न बदला है न बदलेगा यह
बुद्ध, कबीर, नानक कहें सब
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 17 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंअहोभाव ! कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा है हृदय ।
जवाब देंहटाएंकोई फूलों को चुन लेता
जवाब देंहटाएंदूजा काँटों को बुन लेता
ताज बनाकर सिर पर पहने
आँसू बहा तुष्टि भर लेता....वाह! बहुत सुंदर।
वही पार उतरा इस तट से
जवाब देंहटाएंपरिचित जो अंतर पनघट से - - सुन्दर रचना।
वाह !बेहतरीन सृजन दी।
जवाब देंहटाएंसादर
गोरखधंधे में राह ढूँढना हो जैसे..
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