गुरुवार, नवंबर 5

समय या भ्रम

समय या भ्रम

 


समय जो निरंतर गतिमान है

क्या वाकई गति करता है?

या घटनाएं ही ऐसा प्रतीत कराती हैं

दिन और रात

माह और वर्ष

जन्म और मृत्यु

के मध्य समय बहता सा लगता है

 पर देखने वाला सदा एक सा रहता है !

रेत पर धँसे पाँव ज्यों

कहीं जाते से प्रतीत होते हैं

लहर आकर चली जाती है

वे वहीं के वहीं रहते हैं !

इतिहास बनता रहता है

व्यक्ति वही रहता है

कभी भयभीत, कभी निर्भीक,

कभी शोषक अथवा कभी शोषित

महामारी फिर-फिर दोहराती है

युद्ध भी लड़े जाते हैं बार-बार

जो भी बदलता है वह भ्रम ही सिद्ध होता है

एक पर्दा है जैसे जिस पर

घट रहा है सब कुछ

शायद गहराई में हर मन जानता है

यह एक दोहराया जाने वाला खेल है

 और वह इसमें व्यर्थ ही फंस गया है

सदा से है वह यहीं

वह कहीं गया ही नहीं

सारा भय ऊपर-ऊपर है

विचार में या भावना में

कुछ छूट जाने का भय

कुछ न कर पाने का भय

मारे जाने का भय

जो कंपता है वह प्रतिबिंब है

चाँद को कुछ नहीं होता

मछली के जाल में वह कभी फंसा ही नहीं

बस मान लिया है

सारा समय इस एक क्षण में समाया है

शेष सब..  कुछ छाया और कुछ माया है !

 


7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 05 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आदरणीया अनिता जी,

    जो कंपता है वह प्रतिबिंब है
    चाँद को कुछ नहीं होता
    मछली के जाल में वह कभी फंसा ही नहीं
    बस मान लिया है
    सारा समय इस एक क्षण में समाया है
    शेष सब.. कुछ छाया और कुछ माया है !


    हृदयस्पर्शी कविता हेतु साधुवाद 🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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    1. सुंदर प्रतिक्रिया हेतु स्वागत व आभार डाक्टर वर्षा जी !

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