कोई एक
युगों-युगों से बह रही है
मानवता की अनवरत धारा
उत्थान -पतन, युध्द और शांति के तटों पर
रुकती, बढ़ती
शक्तिशाली और भीरु
समर्थ और वंचित को ले
आह्लाद और भय का सृजन करती
विशालकाय और सूक्ष्मतम
दोनों को आश्रय देती सदा
कोई एक इस धार से छिटक
तट पर आ खड़ा होता है
विचार की शैवाल से पृथक कर खुद
मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के
भँवर से निकल
मोतियों का मोह त्यागे
नितांत एकाकी सूने तट पर
देखता है बड़ी मछलियों से भयभीत हैं छोटी
देखता है वही दोहराते हुए
जगत पुनःपुनः निर्मित होते औ' नष्ट होते
आवागमन के इस चक्र से वह बाहर है !
सत्य कहा आपने। सामान्य जनों की भीड़ में कोई एक ही बुद्ध, विवेकानन्द या कोई महान व्यक्तित्व बन पाता है।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म को बताती हुई सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार १ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-12-20) को "अपना अपना दृष्टिकोण "'(चर्चा अंक-3902) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंगुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएं5 best running shoes for heavy female runners
जवाब देंहटाएंगहन भावार्थ ली हुई - - सुन्दर व प्रभावशाली रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंअप सभी सुधीजनों का आभार !
जवाब देंहटाएंमन के तार को झंकृत करती हुई अनुभूति । अति सुंदर ।
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