स्वामी-दास
कोई स्वामी
है कोई दास
है अपनी-अपनी फितरत की बात
किसका ?
यह है वक्त का तकाजा
स्वामी
माया का चैन की नींद सोता
क्षीर सागर में भी
सर्पों
की शैया पर !
गुलाम वातानुकूलित कक्ष में
करवटें बदलता है
मखमली
गद्दों पर !
मन
का मालिक शीत, घाम
सहज
ही बिताता है
गुलाम
हड्डियाँ कंपाता,
कभी
पसीने से अकुलाता है
स्वामी
है जो स्वाद का
दाल-रोटी खाकर भी
गीत गुनगुनाता है
भोजन
का दास
पाचक खाकर ही निगल पाता है
हर
पल उत्सव मनाए स्वामी
दास
बेबात मुँह फुलाता है
हजार
उपाय करता
गम
भुलाने के वह
फिर
एक न एक दिन
शरण
में स्वामी की आ ही जाता है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 24 नवंबर नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-11-2020) को "कैसा जीवन जंजाल प्रिये" (चर्चा अंक- 3896) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति...।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंअध्यात्म और आधुनिक समाज का, सुन्दर व अर्थपूर्ण समन्वय रचना में उभर कर आया है - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन आ0
जवाब देंहटाएंवक्त का तकाजा ही तो है.
जवाब देंहटाएंआध्यात्म और भौतिकता का अद्भुत संगम ।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का हृदय से आभार !
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