सोमवार, मई 31

प्रीत बिना यह जग सूना है

प्रीत बिना यह जग सूना  है 


प्रीत जगे जिस घट अंतर में 

वही कुसुम सा विहँसे खिल के, 

यह वरदान उसी से मिलता 

जो माधव मधुर सलोना है !


प्रीत घटे वसंत छा जाता 

उपवन अंतर का महकाता, 

भावों की सरिता को भी तो 

कल-कल छल-छल नित बहना है !

 

जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता 

घट वह मरुथल सा बन जाता, 

शुष्क हृदय में  बसे न श्यामा 

नित कलरव वहाँ गुँजाना है !


प्रीत से ही धरा गतिमय यह 

पंछी, पादप, पशु का जीवन, 

प्रेम से ही होता है सिंचन 

जगती को नूतन होना है !



 

11 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-6-21) को "वृक्ष"' (चर्चा अंक 4083) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. प्रीत ही सृष्टि है । सुंदर रचना ।

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  3. सच है 'प्रेम के बिना नीरस है यह संसार'
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  4. बहुत ही उम्दा भाव और लेखनी।

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  5. नमस्‍कार अनीता जी, बहुत सुंदर रचना पढ़वाने के ल‍िए आभार...क‍ि "जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता

    घट वह मरुथल सा बन जाता,

    शुष्क हृदय में बसे न श्यामा

    नित कलरव वहाँ गुँजाना है !" वाह

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  6. स्नेह और प्रेम ही जीवन का आधार है,सार्थक सत्य समझाती सुन्दर रचना ।

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  7. आप सभी सुधीजनों का स्वागत व आभार !

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  8. जीवन का अति सुन्दर मूल्यांकन !

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  9. बहुत खूबसूरत, प्रीत बिना जग सूना सचमुच नीरस स्वादहीन लगता है

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