रविवार, नवंबर 7

सुनहरे भविष्य की

सुनहरे भविष्य की 

आशा अमरबेल सी 

जीवन के वृक्ष पर लिपटी है 

अवशोषित करती जीवन का रस 

सदा भविष्य के सपने दिखाती 

जबकि प्रीत की सुवास भीतर सिमटी है 

दिन-रात बजते हैं मंजीरे मन के 

मौन जीवन को

सुने भी तो कैसे कोई

दूजे पर ध्यान सदा 

न निजता को चुने कोई 

खुद में जो बसता है 

वही तो मंज़िल है 

प्रेम कहो शांति कहो 

वह अपना ही दिल है 

यहीं घटे अभी मिले वही वह रब है 

कभी गहा कभी छूटा 

जगत यह सब है !



12 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (08 -11-2021 ) को 'अंजुमन पे आज, सारा तन्त्र है टिका हुआ' (चर्चा अंक 4241) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. जीवन संदर्भ से ओतप्रोत सुंदर भावपूर्ण रचना ।

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  3. वाह वाह ! अद्भुत जीवन दर्शन से युक्त अनुपम रचना ! अति सुन्दर !

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  4. प्रेम कहो शांति कहो, वह अपना ही दिल है। ठीक कहा आपने।

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  5. साधना जी, जितेंद्र जी व मनीषा जी आप सभी का स्वागत व आभार!

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  6. मौन जीवन को, सुने भी तो कैसे कोई
    दूजे पर ध्यान सदा ,न निजता को चुने कोई ।
    बहुत सुंदर गहन भाव रचना।

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