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सोमवार, मार्च 6

होली अंतर की उमंग है

होली अंतर की उमंग है


 है प्रतीक वसंत जीवन का

यौवन का इंगित वसंत है,

होली मिश्रण है दोनों का

हँसते जिसमें दिग-दिगंत है !


रस, माधुर्य,  सरसता कोमल

आशा, स्फूर्ति और मादकता,

होली अंतर की उमंग है

अमर प्रेम की परम  गहनता !


जिंदादिल उत्साह दिखाते

साहस  भीतर भर-भर पाते,

होली के स्वागत में ख़ुशियाँ 

पाते उर में और लुटाते !


सुंदर, सुखमय सजे  कल्पना  

रंगों की आपस में ठनती,

मस्तक लाल, कपोल गुलाबी

मोर पंख सी चुनरी बनती !


कण-कण वसुधा का मुस्काए 

फूलों से मन खिल-खिल जाते ,

लुटा रहा सुवास मौसम जो

चकित हुए नासापुट पाते !


हरा-भरा पुलकित  उर अंतर

कण-कण में झलके वह सुंदर,

मधुरिम, मृदुलिम निर्झर सा मन  

कल-कल करे निनाद निरंतर !


मादक पीयुष सी ऋतु  होली

अमराई में कोकिल बोली,

जोश भरा उन्मुक्त हृदय ले

निकली मत्त मुकुल की टोली !


शुक्रवार, फ़रवरी 17

उर में मुक्ति राग बजें


उर में  मुक्ति राग बजें 

आशा नहीं आस्था के हम मिलकर दीप जलायें 

तज आकाश कुसुम तंद्रा के श्रद्धा पुष्प खिलायें,


हरकर तमस भरेंगे  पावन मधुर  सुवास हृदय में 

मंगल प्रीत अल्पनाओं  पर नेह घट विमल सजायें ! 


मोहपाश तोड़कर सहसा उर में  मुक्ति राग बजें 

नील गगन में भर  उड़ान  मन मयूर निर्मुक्त सजें,


पाषाणों से ढके स्रोत जो सिमटे अपने गह्वर 

सहज  प्रवाहित निर्बाधित  बह निकलें उत्ताल लहर  !


छाए बहार चहुँ ओर मिटे  तामस हर इक घट का 

झांकें गहन  रहस्य खोजें  खोलें  पट घूँघट का ! 


जो  गाए न गीत कभी ना  जिनकी लय-धुन बांधी

परिचय करें अनाम स्वरों  से  गूँजे  नयी रागिनी  !  

​​

रविवार, नवंबर 7

सुनहरे भविष्य की

सुनहरे भविष्य की 

आशा अमरबेल सी 

जीवन के वृक्ष पर लिपटी है 

अवशोषित करती जीवन का रस 

सदा भविष्य के सपने दिखाती 

जबकि प्रीत की सुवास भीतर सिमटी है 

दिन-रात बजते हैं मंजीरे मन के 

मौन जीवन को

सुने भी तो कैसे कोई

दूजे पर ध्यान सदा 

न निजता को चुने कोई 

खुद में जो बसता है 

वही तो मंज़िल है 

प्रेम कहो शांति कहो 

वह अपना ही दिल है 

यहीं घटे अभी मिले वही वह रब है 

कभी गहा कभी छूटा 

जगत यह सब है !



रविवार, अप्रैल 11

उस अनंत के द्वार चलें हम

 उस अनंत के द्वार चलें हम

बाहर की इस चकाचौंध में   

भरमाया, भटकाया खुद को 

काफी दूर निकल आए हैं

अब तो घर को लौट चलें हम  !


कुदरत की यह मूक व्यथा है 

ठहरो, थमो, जरा तो सोचो, 

व्यर्थ झरे सब, सार थाम लो  

अब तो कदम संभल रखें हम ! 


माना मन के नयनों में कुछ  

स्वप्न अभी भी करवट लेते,  

किस आशा का दामन थामें !

आज अगर जीवन खो दें हम !


जो भव रोग बना हो छूटे 

आश्रय मिले मनस गुहवर  में,

सीमित हैं साधन जीवन के ! 

उस अनंत के द्वार चलें हम


लौट चलें हैं दूर वतन से 

जाने कब यह शाम घिरेगी,

जिस घर जाना नियति सभी की 

उसकी राह न कहीं मिलेगी !



शनिवार, जुलाई 4

खेल कोई चल रहा ज्यों

खेल कोई चल रहा ज्यों 

विवश होकर आज मानव 
कैद घर में पूछता यह, 
कब कटेगी रात काली 
कब उजाला पायेगा वह ? 

उच्च शिखरों पर चढ़ी थी 
धूल धुसरित आज आशा, 
खेल कोई चल रहा ज्यों 
साँप-सीढ़ी की सी भाषा !

रज्जु को यदि सर्प माना
भय की दीवारें चुन ली, 
किन्तु ऐसा भी चलन है 
सर्प से ही आड़ बुन ली !

आज ऐसा ही समय है 
व्यर्थ सारा श्रम हुआ है, 
जहाँ पनपी आस्था थी 
भान होता भ्रम हुआ है !

सत्य को यदि ढूँढ पाए 
भूल से वह नहीं छिटके, 
राह अपनी जो चुनें फिर  
कदम ना उस डगर ठिठके !

शनिवार, जून 20

हानि-लाभ

हानि-लाभ 

कदाचित हर इच्छा लोभ से उपजती है 
हर भय हानि की आशंका से 
सुख की आशा ही लोभ है 
दुःख का दंश ही भय है !

कुछ और मिल जाये 
कहीं कुछ खो न जाये 
इन दो तटों के मध्य ही 
बहती है जीवन सरिता !

योगक्षेम का ख्याल रखा जायेगा 
कृष्ण का यह आश्वासन भी काम नहीं आता 
वरना दुनिया में इतना संघर्ष बढ़ता नहीं जाता !

कुछ लोग उतरे हैं सड़कों पर कुछ पाने को 
रत हैं कुछ दूसरों के भय को भुनाने को !

कोरोना की सुरसा सी बढ़ती भूख को 
समझदारी ही शांत कर सकती है 
जीवन यदि प्रिय है तो 
 परिवर्तन की धारा ही जिला सकती है 
चिकित्सक भी उतना ही मानव है 
जीवन दे नहीं दे सकता 
अपने ही हाथों में है भविष्य 
ऐसे मोड़ पर खड़ी है सभ्यता !

गुरुवार, सितंबर 19

आशा फिर भी पलती भीतर



आशा फिर भी पलती भीतर


राहें कितनी भी मुश्किल हों
होता कुछ भी ना हासिल हो,
आशा फिर भी पलती भीतर
चाहे टूट गया यह दिल हो !

प्यार की लौ अकम्पित जलती
गहराई में कलिका खिलती,
नजरें जरा घुमा कर देखें
अविरल गंगा पग-पग बहती !

महादेव रक्षक हों जिसके
रोली अक्षत हों मस्तक पे,
किन विपदाओं से हारे वह
भैरव मन्त्र जपा हो मन से !

सृष्टि लख जब याद वह आये
बरबस मन अंतर मुस्काए,
अपनेपन की ढाल बना है
बाँह थाम वह पार लगाये !

सुख-दुःख में समता जो साधे
मन वह बोले राधे-राधे,
हँसते-हँसते कष्ट उठाये
सदा समर्पित जो आराधे !

शुक्रवार, मार्च 27

नेह घट सजाने हैं

नेह घट सजाने हैं

आशा के नहीं आस्था के दीप जलाने हैं
आकाश कुसुम नहीं श्रद्धा पुष्प खिलाने हैं,
हर लेंगे तम, जो भर देंगे सुवास मन में
प्रीत की अल्पना पर नेह घट सजाने हैं !

मोहपाश तोड़कर मुक्ति राग बज उठें
गगन में उड़ान भर मन मयूर गा उठें,
पाषणों से ढके स्रोत जो सिमटे थे
हुए प्रवाहित अबाधित वे बह निकलें !

छाए बहार चहुँ ओर मिटे तम घट का
झांकें क्या है पार खोल पट घूँघट का,
जो न गाए गीत कभी न राग जगे
परिचय कर लें आज नये उस स्वर का !  

बुधवार, अगस्त 13

उसने भी कर दिया इशारा

उसने भी कर दिया इशारा

रंग हमारे हाथ लगे हैं
कैनवास है यह जग सारा,
रंगी इसे बना डालें अब
उसने भी कर दिया इशारा !

कोई गीत रचे जाता है
हम भी सुर अपने कुछ गा लें,
गूँजे स्वर्णिम स्वर लहरियाँ
उन संग आशाएं सजा लें !

रचा जा रहा पल-पल यह जग
सृजन हमारे हाथों कुछ हो,
कोई मौन सजाता निशदिन
मिलन हृदय का उससे भी हो !

बिन मांगे ही जो देता है
देख तृप्त होता है अंतर,
नजर जहाँ भी टिक जाती है
उसका ही तो दिखता मंजर !



मंगलवार, मार्च 4

आना वसंत का

आना वसंत का

जब नहीं रह जाती शेष कोई आशा
 निराशा के भी पंख कट जाते हैं तत्क्ष्ण !
जब नहीं रह जाती ‘मैं’ की धूमिल सी छाया भी
उसकी झलक मिलने लगती है उसी क्षण
निर्भर, निर्मल वितान सा जब फ़ैल जाता है
मन का कैनवास
 प्रेम के रंग बिखेर जाता है कोई अदृश्य हाथ
माँ की तरह साया बन कर चेताती चलती है
छंद मयी हो जाती है कायनात !
छूट जाते हैं जब सारे आधार
तब ही भीतर कोई कली खिलती है
बज उठते हैं मृदंग और साज
जुड़ जाते हैं जाने किससे अंतर के तार !
जब पक जाता है ध्यान का फल भी
झर जाता है जन्मों का पतझड़
और उतर आता है चिर वसंत जीवन में !



गुरुवार, जुलाई 4

नया जब दिन उगा

नया जब दिन उगा


नूतन उच्छ्वास भरें
श्वासों में हर्ष के,
नया सा दिन उगा
वृक्ष पर वर्ष के !

आशा कुम्हलायी जो
बंधी अभी छोर में ?
 लिए बासी मन जगे
क्यों कोई भोर में ?

ताजा समीर बहे
क्षमता भी बढ़ी है,
कल से आज तलक
उम्र सीढ़ी चढ़ी है !

जैसा भी हो समय
नया उत्कर्ष हो,
हँसी की गूंज सदा
बीते दिन अमर्ष के !

नया जब दिन उगे  
वृक्ष पर वर्ष के !


सोमवार, दिसंबर 26

नए वर्ष के लिये संकल्प


नए वर्ष के लिये संकल्प

मन उपवन नित सजा रहे, न उगने पाए खर-पतवार
मंजिल की बाधा बन जाये, जमे न ऐसा कोई विचार

आशा के कुछ पुष्प उगायें, पोषण दे, ऐसा ही सोचें
कंटक चुन-चुन बीनें पथ से, सदा अशुभ को बाहर रोकें

प्रज्ञा की सुंदर बेल हो, दृढ़ इच्छा का वृक्ष लगे
प्रेम की धारा बहे सदा, बुद्धि, ज्योति बनी जगे

अपसंस्कृति को प्रश्रय न दें, सुसंस्कृति ही पनपे
तहस-नहस न हो मन उपवन, जीवन निशदिन महके

नया-नया सा नित विचार हो, भीतर ज्ञान की ललक उठे
जिज्ञासा जागृत हो मन में, जिजीविषा भी प्रबल रहे

रहे जागरण भीतर प्रतिपल, प्रतिपल श्रद्धा हो अर्जित
आगे ही आगे ही बढ़ना है, भीतर स्मृति हो वर्धित

शुक्रवार, अक्टूबर 22

मन छोटा सा

मन छोटा सा

चाह मान की जिसे जिलाए
वह है अपना छोटा सा तन,
कुछ पाने की आस लगाये
वह है अपना छोटा सा मन !

अमन हुआ जब मुक्त हो गया
त्यागी तृष्णा रिक्त हो गया,
लाखों हैं मेधा में बढ़ कर
जाना जब तब सिक्त हो गया !

मान की आशा ले डूबती
मदकी नैया सदा टूटती,
ख़ुदसे ही आगे जाना है
दुइ की गागर सदा फूटती !

सहज रहें जैसे हैं बादल
पंछी, पुष्प, चाँद औ'तारे,
भीतर जाकर उसको देखें
जिससे निकले हैं स्वर सारे !


अनिता निहालानी
२२ अक्तूबर २०१०

 

मंगलवार, सितंबर 14

तुम हर पल हमें बुलाते हो !



तुम हर पल हमें बुलाते हो !

जग से जिस पल खाया धोखा
जब जब दिल ने खायी ठोकर,
तुम ही तो पीड़ा बन मिलते
 झलक सत्य की दिखलाते हो !

जिनको माना हमने अपना
निकले झूठे वे सब सपने,
आधार बनाया था जिनको
छल करना उन्हें सिखाते हो !

पीड़ा भी तुम वरदान तुम्हीं
सब जाल बिछाया है तुमने,
जीवन का भेद खोलने को
वैराग्य पाठ पढ़ाते हो !

भीतर जो दर्द उठा गहरा
वह आशा से ही उपजा था,
टूटे आशा की डोर तभी
तुम ऐसे खेल रचाते हो !

अनिता निहालानी
१४ सितम्बर २०१०