निज विलास में खोयी थी जो
जग जब मुझमें ही बसता है
क्या पाना क्या खोना इसका,
युग बीतें जब इक पल में ही
मिलना और बिछड़ना किसका !
पल-पल में घटता है दर्शन
पट पर दृश्य बदलता जाता,
द्रष्टा छुपा हुआ दर्शन में
एक तत्व ही बस रह जाता !
अबदल अचल अगोचर कोई
मायामय नूतन रूप धरे,
नित निरभ्र अनंत अंबर सा
बदली बन उर जिसमें विचरे !
छाने लगी सघन नीरवता
गहन गुफा में सोयी थी जो,
आना-जाना मिटा गयी है
निज विलास में खोयी थी जो !
महक भरी जर्रे-जर्रे में
उसी एक चेतन प्रज्ञा की,
कब पत्ता भी हिला उस बिना
आधार वही हर संज्ञा की !
बहुत ही सुंदर
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