शुक्रवार, अप्रैल 29

निज विलास में खोयी थी जो

निज विलास में खोयी थी जो

जग जब मुझमें ही बसता है 

क्या पाना क्या खोना इसका,

 युग बीतें जब इक पल में ही

मिलना और बिछड़ना किसका !


 पल-पल में घटता है दर्शन

पट पर दृश्य बदलता जाता, 

द्रष्टा छुपा हुआ दर्शन में 

एक तत्व ही बस रह जाता !


अबदल अचल अगोचर कोई 

मायामय नूतन रूप धरे, 

नित निरभ्र अनंत अंबर सा 

बदली बन उर जिसमें विचरे !


छाने लगी सघन नीरवता 

गहन गुफा में सोयी थी जो, 

आना-जाना मिटा गयी है 

निज विलास में खोयी थी जो !


महक भरी जर्रे-जर्रे में 

उसी एक चेतन प्रज्ञा की, 

कब पत्ता भी हिला उस बिना 

आधार वही हर संज्ञा की !





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