रविवार, मई 8

वसुंधरा


  वसुंधरा 
जल धाराओं के सिंचन से
तृप्त हुई माँ
उलीचती हरियाली
निज अंतर में कुछ न रखती
सभी यहाँ लौटा देती है
गंध, स्वाद, रंग बन मिलती
धरती कई रूप में खिलती !
पुरवाई भी हुई शीतला
जल संस्पर्श हर गया तप्तता
झूमें वृक्ष, डालियाँ थिरकें
विहग विहँसते.. परस पवन का !
अन्तरिक्ष प्रफ्फुलित उर में
मूक, मौन हो सबको धारे
रवि मयूख धेनु बना कर
नील गगन का रूप संवारे !
सृष्टि रंग मंच पर नित ही
खेल नये नित खेले जाते
उसी चेतना के हित हैं ये
उससे ही हैं भेजे जाते !

5 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही कहा आपने ।पृथ्वी कहां कुछ अपने अंतस में रखती है जो हम देते हैं,हमे सूत सहित लौटा देती है ।
    बहुत सुंदर सराहनीय अभिव्यक्ति।

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