मन की मछरिया
शब्दों के जाल में
मन की मछली अक्सर फंस जाती है
स्रोत से दूर होकर व्यर्थ ही छटपटाती है
जल से बनी है वह भूल ही जाती है
चाहे तो पल भर में छिद्रों से निकल जाए
जाल कोई पल भर भी
बांध नहीं उसे पाए
पर रूप धरा झूठा ही
मोह, माया, मान का
जाने किस बात की मिथ्या
आन बान का
टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का
शायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है
क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है
पल भर भी शांत हो
पिघल पिघल जाएगी
जल में विलीन हो जल ही हो जाएगी
ख़ाली और रिक्त है
पर रूप नए बनाती है
शब्दों के जाल में
मन की मछरिया !
टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का
जवाब देंहटाएंशायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है
क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है
सच में , मन की मछली समझती ही नहीं ।
ख़ाली और रिक्त है
जवाब देंहटाएंपर रूप नए बनाती है
शब्दों के जाल में
मन की मछरिया !.....बहुत खूब!!
मन की मछरिया को शब्दों के जाल में फँसकर नया सृजन करना ही होता है।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २० मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंवाह, बहुत खूब! वाकई मन अगर चाहे तो ये भरम तोड़ कर इस जाल से निकल सकता है.... बहुत ही गूढ़ बात सरल शब्दों में। .. सुन्दर!
जवाब देंहटाएंख़ाली और रिक्त है
जवाब देंहटाएंपर रूप नए बनाती है
शब्दों के जाल में
मन की मछरिया ! मन की मछरिया की सुंदर गूढ़ अभिव्यंजना ।
संगीता जी, विश्वमोहन जी, यश जी मधुरेश जी और जिज्ञासा जी आप सभी का हृदय से स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर भाव एवं शिल्प। चिंतनीय, मननीय।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी व ज्योति जी!
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