गुरुवार, मई 19

मन की मछरिया

 मन की मछरिया 

शब्दों के जाल में 

मन की मछली अक्सर फंस जाती है 

स्रोत से दूर होकर व्यर्थ ही छटपटाती है 

जल से बनी है वह भूल ही जाती है 

चाहे तो पल भर में छिद्रों से निकल जाए 

जाल कोई पल भर भी 

बांध नहीं उसे पाए 

पर रूप धरा झूठा ही 

मोह, माया, मान का 

जाने किस बात की मिथ्या 

आन बान का 

टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का 

शायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है

क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है 

पल भर भी शांत हो 

पिघल पिघल जाएगी 

जल में विलीन हो जल ही हो जाएगी 

ख़ाली और रिक्त है 

पर रूप नए बनाती  है 

शब्दों के जाल में 

मन की मछरिया !



11 टिप्‍पणियां:

  1. टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का

    शायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है

    क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है

    सच में , मन की मछली समझती ही नहीं ।

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  2. ख़ाली और रिक्त है

    पर रूप नए बनाती है

    शब्दों के जाल में

    मन की मछरिया !.....बहुत खूब!!

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  3. मन की मछरिया को शब्दों के जाल में फँसकर नया सृजन करना ही होता है।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  5. वाह, बहुत खूब! वाकई मन अगर चाहे तो ये भरम तोड़ कर इस जाल से निकल सकता है.... बहुत ही गूढ़ बात सरल शब्दों में। .. सुन्दर!

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  6. ख़ाली और रिक्त है

    पर रूप नए बनाती है

    शब्दों के जाल में

    मन की मछरिया ! मन की मछरिया की सुंदर गूढ़ अभिव्यंजना ।

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  7. संगीता जी, विश्वमोहन जी, यश जी मधुरेश जी और जिज्ञासा जी आप सभी का हृदय से स्वागत व आभार !

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  8. अति सुन्दर भाव एवं शिल्प। चिंतनीय, मननीय।

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  9. स्वागत व आभार अमृता जी व ज्योति जी!

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