बुधवार, मई 17

किताब ज़िंदगी की

किताब ज़िंदगी की 


मुस्कुराओ कि अभी ज़िंदा हो 

आख़िर किस बात पर शर्मिंदा हो 

हाथ थामा है जब उसने 

आगे बढ़कर, 

परवाज़ लगाओ

 मानो कोई परिंदा हो 

रूह तो क़ैद नहीं, उसकी सुनो 

अमन औ” चैन के नये ख़्वाब बुनो !

ज़िंदगी किताब कोरी सी 

हर रात हो जाती,  

हर सुबह नया इक नाम चुनो !

ओढ़ रखा है क्यों मायूसी का

 लबादा सिर पर 

जब डोर बांधी है जन्नतों से दिल की 

कोई सागर पास ही उफनता है 

नाच सकते हो जिसकी लहरों पर 

चाँद छूने का बस इक इरादा ही काफ़ी  

दिल की गहराइयों से जो निकला हो 

श्वासें न खर्च हों समेटते उदासियों को

जबकि हाथ कोई प्यार से सिर पर रखे  ! 


10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 मई 2023 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 18 मई 2023 को 'तितलियों ने गीत गाये' (चर्चा अंक 4664) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  3. मुस्कुराओ कि अभी जिंदा हो ....वाह!बहुत खूब अनीता जी ...

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  4. बहुत सुंदर सकारात्मक स्फूर्ति देती अभिनव रचना।

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