सोमवार, अक्तूबर 7

असली नवरात्रि

असली नवरात्रि 


कामना जगी तो

 धुआँ-धुआँ कर देती है भीतर 

अग्नि आत्मा की बुझ जाती है 

बुझती नहीं तो छुप जाती है !


हर चाह मन के दर्पण पर 

चिपक जाती है 

धूल की परत बन कर 

झलक आत्मा की खो जाती है 

खोती नहीं तो ढक जाती है !


आत्मा का सूरज जहाँ चमकता है 

वहाँ पारदर्शी होता है मन 

अग्नि प्रज्ज्वलित होती है 

पूरे वैभव में 

इच्छा की सुलगती लकड़ियाँ 

कोई धुआँ नहीं देती 

सारे बीज सुख गये होते हैं संस्कारों के 

जो तड़-तड़ कर जलते हैं !


देदीपम्यान होता है भीतर का आकाश 

और यही लक्ष्य है हर मानव का 

फिर भी ख़ुद को भरमाते हैं 

लड़ते और लड़वाते हैं 

माँ को सौंप दें सारी आकांक्षाएँ 

असली नवरात्रि तभी तो मनेगी 

दिल की बगिया 

फिर-फिर खिलेगी !  


7 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णतया समर्पण सच्चे मन से जब भी कर पायेंगे, जीवन अमृत है या गरल स्वाद तब चख पायेंगे।
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ८ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. देवी माँ को समर्पित बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं