गुरुवार, अक्तूबर 17

हकीकत



हकीकत 


"हर रात सपनों से भरी थी 

दिवस कोई ख़ाली कहाँ था 

कहाँ पाते ओ ! रब तुझे हम 

बंद जग का हर इक मकाँ था" 



जाना कहाँ था, पहुँचे कहाँ हैं 

दाता का दर सदा ही खुला है 


 भटके थे राह अब चेत आया 

क्या वह मिलेगा जो था गँवाया 


भूले हुए जब घर लौट आते 

कहते हैं, फिर न भूले कहाते 


माँ देखे पथ पिता बाट तकते 

जल्दी जरा ठिकाने को लौटें 


अब भी समय है इसे न गँवायें 

अपनी हकीकत जानें, जतायें 


1 टिप्पणी:

  1. सुंदर अभिव्यक्ति।
    हकीकत सहजता से समझ पाना भी साधारण जन के लिए आसान भी तो नहीं है।
    सस्नेह सादर।
    ----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं