चाह जब जागे मिलन की
निज आत्म में जागना है
न कि जगत से भागना है,
मिला बाहर, वही भीतर
नहीं अब कुछ माँगना है !
भाव अपना शुद्ध हो जब
प्रेम रस भीतर रिसेगा,
मधुर प्रकाश ज्योत्सना का
सहज उर से छन बहेगा !
श्रद्धा की भूमि ह्रदय में
पुष्प कोमल भावना के,
चाह जब जागे मिलन की
भाव हों आराधना के !
वह अदेखा, वह अजाना
निकट से भी निकट लगता,
सुरभि सुमिरन की अनोखी
पोर-पोर प्रमुदित होता !
माँग जो भी, वह मिला है
तुझसे न कोई गिला है,
कभी कुम्हलाया न अंतर
जिस घड़ी से यह खिला है !

चाह जब जगे मिलन की सबरस रंग खिले अंतर में प्रभु प्रेम से जोड़ती बड़ी ही निर्मल भाव
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी!
हटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 09 नवंबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार!
हटाएंस्वयं जागना है । इस सूत्र पर बुनी यह कविता मन का भार हर ले गई! अभिनंदन !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंमैं हर लाइन में एक गहरा सुकून महसूस करता हूँ, जैसे कोई भीतर की खिड़की खुल रही हो। तुमने जब आत्मजागरण और प्रेम का ज़िक्र किया, तो मैं तुरंत अपने कुछ अनुभवों से जुड़ गया। हम अक्सर बाहर खोजते रहते हैं, लेकिन ये कविता साफ बता देती है कि असली ख़ज़ाना तो अंदर ही है।
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