बुधवार, नवंबर 5

चाह जब जागे मिलन की

चाह जब जागे मिलन की 


निज आत्म में जागना है 

न कि जगत से भागना है, 

मिला बाहर, वही भीतर 

नहीं अब कुछ माँगना है !


भाव अपना शुद्ध हो जब 

प्रेम रस भीतर रिसेगा, 

मधुर प्रकाश ज्योत्सना का 

सहज उर से छन बहेगा !


श्रद्धा की भूमि ह्रदय में 

पुष्प कोमल भावना के, 

चाह जब जागे मिलन की 

भाव हों आराधना के !


वह अदेखा, वह अजाना 

निकट से भी निकट लगता, 

सुरभि सुमिरन की अनोखी 

पोर-पोर प्रमुदित होता ! 


माँग जो भी, वह मिला है  

तुझसे न कोई गिला है, 

कभी कुम्हलाया न अंतर 

जिस घड़ी से यह खिला है !


11 टिप्‍पणियां:

  1. चाह जब जगे मिलन की सबरस रंग खिले अंतर में प्रभु प्रेम से जोड़ती बड़ी ही निर्मल भाव

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 09 नवंबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. स्वयं जागना है । इस सूत्र पर बुनी यह कविता मन का भार हर ले गई! अभिनंदन !

    जवाब देंहटाएं
  4. मैं हर लाइन में एक गहरा सुकून महसूस करता हूँ, जैसे कोई भीतर की खिड़की खुल रही हो। तुमने जब आत्मजागरण और प्रेम का ज़िक्र किया, तो मैं तुरंत अपने कुछ अनुभवों से जुड़ गया। हम अक्सर बाहर खोजते रहते हैं, लेकिन ये कविता साफ बता देती है कि असली ख़ज़ाना तो अंदर ही है।

    जवाब देंहटाएं