चेतन भीतर जो सोया है
बीज आवरण को ज्यों भेदे
धरती को भेदे ज्यों अंकुर,
चेतन भीतर जो सोया है
पुष्पित होने को है आतुर !
चट्टानों को काट उमड़ती
पाहन को तोड़ती जल धार,
नदिया बहती ही जाती है
रत्नाकर से है गहरा प्यार !
ऐसे ही भीतर कोई है
युगों-युगों से बाट जोहता,
मुक्त गगन का आकांक्षी जो
उसका रस्ता कौन रोकता !
धरा विरोध करे ना कोई
पोषण देकर उसे जिलाती,
अंकुर को बढ़ने देती है
लिए मंजिलों तक फिर जाती
चट्टानें भी झुक जाती हैं
मिटने को तत्पर जो सहर्ष,
राह बनातीं, सीढ़ी बनतीं
नहीं धारें तिल मात्र अमर्ष !
लेकिन हम ऐसे दीवाने
स्वयं के ही खिलाफ खड़े हैं,
अपनी ही मंजिल के पथ में
बन के बाधा सदा अड़े हैं !
जड़ पर बस चलता चेतन का
मन जड़ होने से है डरता,
पल भर यदि निष्क्रिय हो बैठे
चेतन भीतर से पुकारता !
लेकिन मन को क्षोभ सताए
अपना आसन क्यों कर त्यागे,
जन्मों से जो सोता आया
कैसे आसानी से जागे !
दीवाना मन समझ न पाए
जिसको बाहर टोह रहा है,
भीतर बैठा वह प्रियतम भी
उसका रस्ता जोह रहा है !