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शनिवार, जून 10

समर्पण


समर्पण 

झुका चरणों में जब-जब कोई माथ
पाया सर पर सदा कोई अदृश्य हाथ
नयनों से झरते जिस पल अश्रु कृतज्ञता के
हरे हैं भाव सारे उसने अज्ञता के
पाया कुछ अनमोल.. क्या है.. कहा नहीं जाता
ऐसा कोई गीत है जो शब्दों में नहीं समाता
सारा अस्तित्त्व जैसे समा गया हो भीतर
या खो गया मन भी उस महान के अंदर
रहा कौन शेष , लुप्त हुआ कौन.. यह भी रहता अस्पष्ट है
बस भीतर पुलक नहीं कोई कष्ट है
धरा बन जाती अनोखा रंगमंच
खो जाता पल भर को जैसे हर प्रपंच
वृक्ष देते ताल उस नृत्य के साथ
जो भीतर घटता
बदल जाता सब कुछ देखते-देखते
पर कोई नजर ना आता
कैसा अनोखा वह सुमिलन का क्षण
सज उठता अस्तित्त्व का कण-कण
भीतर-बाहर का रहता भेद नहीं कोई
एक अनंत की खुशबू रग-रग में समोई
शमा जली है जब जान जाता कोई यह
बन परवाना जल कर भी बचा ही रहता वह
थोथा उड़ गया तब सार ही शेष
हर श्वास हर क्षण लगता विशेष !

शुक्रवार, दिसंबर 2

चलो चलें उस तट हो आएं


चलो चलें उस तट हो आएं 

एक शमा जलती रहती है 
एक नदी बहती रहती है,
एक ध्वनि मद्धिम-मद्धिम सी 
कानों में धुन सी बजती है !

चलो चलें उस तट हो आएं 
स्वयं भी एक ज्योति बन जाएँ,
भँवरा बन गुंजाएं आलम 
मन की तितली यह कहती है !

कुसुमों ने ज्यों गन्ध छुपायी 
सागर में मोती रहता है,
स्वर्णिम आभा भावों में भर 
पलकों से धारा बहती है !

गगन समेटे अनगिन तारे 
मीन बसे लहरों में रंगीं,
जीवन कितने राज छुपाये 
पल-पल यह सृष्टि गहती है !

गुरुवार, मई 17

बस जीना भर है



बस जीना भर है

मेह बरस ही रहा है
बस भीगना भर है
सूरज उगा ही है
नजर से देखना भर है
शमा जली है
बस बैठना भर है
धारा बह रही है
अंजुरी भर ओक से पीना भर है

उतार फेंकें उदासी की चादर
कि कोई आया है
परों को तोलने का
आज मौका पाया है...