सोमवार, नवंबर 11

कोई

कोई

हर प्रातः सूर्य किरणों पर चढ़
पुहुपों के अंतर को छूकर
ओस कणों से ले नरमी
खग पाखों से ले गरमी
 कोई वसुंधरा पर उतरे !

हर साँझ रंग आंचल में भर
वृक्षों की फुनगी पर जाकर
रिमझिम फुहार से ले नमी
सतरंगी आभा पा थमी  
कोई नजर नयन में कांपे !

हर रात्रि चाँदनी वसन ओढ़
जुगनू की नीली छवि छूकर
संध्या तारे से ले चमक
ढलते सूरज से ले दमक
कोई दूर क्षितिज से झांके !

अंतर ऊष्मा से स्पन्दित हो
 पर दुःख से द्रवीभूत कातर
ले उच्छ्वासों से असीम वेग
 श्वासों से ऊर्जित संवेग
कोई कवि कंठ बन गाए !



  


18 टिप्‍पणियां:

  1. अंतर ऊष्मा से स्पन्दित हो
    पर दुःख से द्रवीभूत कातर
    ले उच्छ्वासों से असीम वेग
    श्वासों से ऊर्जित संवेग
    कोई कवि कंठ बन गाए !
    बहुत सुन्दर रचना !
    नई पोस्ट काम अधुरा है

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  2. बहुत सुन्दर...
    आपको पढ़ "कवि दिनकर" याद आते हैं.....

    सादर
    अनु

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  3. बहुत बढ़िया भाव-
    आभार आदरेया-

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  4. पत्तों ने नाता तोडा
    हरियाली ने मुंह मोडा
    चुभती थी शुष्क हवाऐं
    शाखों ने धीरज छोडा
    तब ठूंठ बने पेडों पर
    फूटीं कोमल मुस्कानें
    वे नूतन किसलय कब थे
    वे तेरे दो अक्षर थे ।
    उस अदृश्य ईश्वर की सत्ता सो ही आलोकित है सारा विश्व । बहुत सुन्दर कविता अनीताजी .

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    1. वाह ! उसके अक्षर ही तो कदम कदम पर लिखे हुए हैं...आभार गिरिजा जी

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  5. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १२ /११/१३ को चर्चामंच पर राजेशकुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है

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  6. कालीपद जी, रविकर जी, अनु जी, यशवंत जी, सुषमा जी व राजीव जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  7. कल 13/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  8. अच्छी कविता किंतु शीर्षक से समझ नही आया

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    1. मनु जी, कविता समझने की कम महसूस करने की विधा ज्यादा है..

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  9. प्रकृति कि ये अनुपम छटा उस एक का ही विस्तृत स्वरुप है......अति सुन्दर |

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  10. बहुत सुन्दर व शालीन वर्णन , श्री अनीता जी
    नया प्रकाशन --: जानिये क्या है "बमिताल"?

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  11. भोर से रात्री तक का दर्शन ... प्राकृति की सत्ता को प्रणाम है ...

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