कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण
हर मिलन अधूरा ही रहता
हर उत्सव फीका लगता है,
कितना ही भरना चाहा हो
तुझ बिन घट रीता लगता है !
ज्यों बरस-बरस खाली बादल
चुपचाप गगन में खो जाते,
कह-सुन जीवन भर हम मानव
इक गहन नींद में सो जाते !
कितनीं मनहर शामें देखीं
कितनी भोरों को मन चहके,
सूनापन घिर-घिर आता फिर
कितने हों वन –उपवन महके !
कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण
पर नजर नहीं वह आता है,
जाने किस लोक का वासी है
जाने किस सुर में गाता है !
पलकें हो जाती हैं भारी
नीदों में स्वप्न जगाते हैं,
इक भ्रम सा होता मिलने का
जब भोर जगे मुस्काते हैं !
"इक भ्रम सा होता मिलने का
जवाब देंहटाएंजब भोर जगे मुस्काते हैं | "
आत्मा को छूती हुई पंक्तियाँ तथा छायावाद का उत्कृष्ट उदाहरण । Anil Dayama 'Ekla': दी अवशेषो ने दिशा:
उसका अभिदर्शन ही तो रहस्य है जीवन का. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंकल 23/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत बहुत आभार !
हटाएंअनुभूत-जगत की मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं एक हस्यमय पुट के साथ -सुन्दर !
जवाब देंहटाएंकितनीं मनहर शामें देखीं
जवाब देंहटाएंकितनी भोरों को मन चहके,
सूनापन घिर-घिर आता फिर
कितने हों वन –उपवन महके !
...मन की ख़ुशी के आगे कुछ भी अच्छा नहीं संसार में ..
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना
अनिलजी, निहार जी, प्रतिभा जी व कविता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंवाह ..बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह ... गेयता, लय और सुन्दर भाव लिए मधुर रचना ...
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