देखो ! शाम ढलती है
देखो ! शाम ढलती है
लौटते हैं नीड़ को खग
हुए सूने गाँव के मग
आस मिलन की पलती है !
जो खिले थे प्रातः बेला
खो गये झर पुष्प सहसा,
जो बहे थे सुर सुरीले
खो गये स्वर पंछियों के !
जल उठे हैं दीप घर-घर
बज उठे हैं आरती स्वर,
रात्रि का स्वागत करें अब
रात-रानी खिलती है !
गगन का भी ढंग बदला
विटप का भी रंग बदला,
रोशनी की थी जो माया
किस तरह छलती है !
कूकती है इक अकेली
कोकिला बिछुड़ी तरु से
राह भटका ज्यों मुसाफिर
भटकन ही खलती है !
बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर। शब्द और बिम्ब दोनों सुन्दर।
जवाब देंहटाएंअनिल जी, रविकर जी तथा वीरू भाई, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और भावमय अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शब्द चित्र...
जवाब देंहटाएंAti sunder prastuti hai ....
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