शुक्रवार, नवंबर 21

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण



हर मिलन अधूरा ही रहता
हर उत्सव फीका लगता है,
कितना ही भरना चाहा हो
तुझ बिन घट रीता लगता है !

ज्यों बरस-बरस खाली बादल
चुपचाप गगन में खो जाते,
कह-सुन जीवन भर हम मानव
इक गहन नींद में सो जाते !

कितनीं मनहर शामें देखीं
कितनी भोरों को मन चहके,
सूनापन घिर-घिर आता फिर
कितने हों वन –उपवन महके !

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण
पर नजर नहीं वह आता है,
जाने किस लोक का वासी है
जाने किस सुर में गाता है !

पलकें हो जाती हैं भारी
नीदों में स्वप्न जगाते हैं,
इक भ्रम सा होता मिलने का
जब भोर जगे मुस्काते हैं !

   

9 टिप्‍पणियां:

  1. "इक भ्रम सा होता मिलने का
    जब भोर जगे मुस्काते हैं | "
    आत्मा को छूती हुई पंक्तियाँ तथा छायावाद का उत्कृष्ट उदाहरण । Anil Dayama 'Ekla': दी अवशेषो ने दिशा:

    जवाब देंहटाएं
  2. उसका अभिदर्शन ही तो रहस्य है जीवन का. सुन्दर रचना.

    जवाब देंहटाएं
  3. कल 23/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  4. अनुभूत-जगत की मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं एक हस्यमय पुट के साथ -सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  5. कितनीं मनहर शामें देखीं
    कितनी भोरों को मन चहके,
    सूनापन घिर-घिर आता फिर
    कितने हों वन –उपवन महके !
    ...मन की ख़ुशी के आगे कुछ भी अच्छा नहीं संसार में ..
    बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना

    जवाब देंहटाएं
  6. अनिलजी, निहार जी, प्रतिभा जी व कविता जी आप सभी का स्वागत व आभार !

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह ... गेयता, लय और सुन्दर भाव लिए मधुर रचना ...

    जवाब देंहटाएं