सोमवार, मई 15

कोई राग छिपा कण-कण में


कोई राग छिपा कण-कण में

पाहन में ज्यों छिपी अगन है
उर भावों में छिपी तपन है,
कस्तूरी सी महके भीतर,
घट-घट में जो बसी लगन है !

कोई राग छिपा कण-कण में
मृदु अनुराग बसा जीवन में,
मद्धिम-मद्धिम दीप जल रहा
इक  सुगंध  हर अंतर्मन में  !

एक अरूप रूप के भीतर
दृष्टा तकता एक निरंतर,
तम कितना भी घन छा जाए
हीरा एक चमकता भीतर  !

 देह धरा सी गगन सदा  मन
पंख लगा उड़ने को तत्पर,
एक संपदा लेकर आया,
खोल पोटली देखें थमकर !

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