रविवार, जुलाई 2

पा परस उसका सुकोमल



पा परस उसका सुकोमल

बह रहा है अनवरत जो
एक निर्झर गुनगुनाता,
क्यों नहीं उसके निकट जा
दिल हमारा चैन पाता !

झूमती सी गा रही जो
हर कहीं सोंधी बयार,
पा परस उसका सुकोमल
क्यों न समझे झरता प्यार !

निकट ही जो शून्य बनकर
बन अगोचर थाम रखता,
भूल जाता बेखुदी में
क्यों न उसका मान रखता !

जो बरसता प्रीत बनकर
संग है आशीष बनकर,
क्यों नहीं नजरें हमारी
चातकी सी टिकी उसपर ! 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ,
    हिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रही हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
    मानती हैं न ?
    मंगलकामनाएं आपको !
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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    1. स्वागत व आभार सतीश जी, सचमुच आत्मअभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलती है वह कृपा का प्रसाद है..आपको भी शुभकामनायें !

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  2. उत्तर
    1. इतने दिनों के बाद आपको अपने ब्लॉग पर पाकर हर्षित हूँ..स्वागत व आभार !

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  3. निकट ही जो शून्य बनकर
    बन अगोचर थाम रखता,
    भूल जाता बेखुदी में
    क्यों न उसका मान रखता !....बहुत अच्छी पंक्तियाँ !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्वागत व प्रतिक्रिया के लिए आभार ऋता जी !

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