शनिवार, जुलाई 15

उन अँधेरों से डरें क्यों

उन अँधेरों से डरें क्यों


खो गया है घर में कोई चलो उसे ढूँढ़ते हैं
बह रही जो मन की सरिता बांध कोई बाँधते हैं

आँधियों की ऊर्जा को पाल में कैसे समेटें 
उन हवाओं से ही जाकर राज इसका पूछते हैं

इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास अपने
उन अँधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं

हँसे पल में पल में रोए मन शिशु से कम नहीं है
दूर हट के उस नादां की हरकतें हम देखते हैं

कुछ नहीं है पास खुद के बाँस जैसी खोखली जो
उस अकड़ को शान से चेहरे बदलते देखते हैं  

8 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ नहीं है पास खुद के बाँस जैसी खोखली जो
    उस अकड़ को शान से चेहरे बदलते देखते हैं
    बहुत सुन्दर और सटीक

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  2. आँधियों की ऊर्जा को पाल में कैसे समेटें
    उन हवाओं से ही जाकर राज इसका पूछते हैं
    बहुत सुंदर।

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