सोमवार, जुलाई 10

मानव और परमात्मा


मानव और परमात्मा

मुक्ति की तलाश करे अथवा ऐश्वर्यों की
परमात्मा होना चाहता है मानव
या कहें ‘व्यष्टि’ बनना चाहता है ‘समष्टि’
प्रभुता की आकांक्षा छिपी है भीतर
पर कृपण है उसका स्नेह
जो प्रेम में नहीं बदलता
बदल भी गया तो धुंधला-धुंधला है  
पावन है यदि प्रेम तो धुआं नहीं देगा दर्द का
अग्नि सम जला देगा हर द्वैत को
जिसकी चट्टान ही
नहीं पनपने देती आत्म के बीज को 
  जो खिलकर अस्तित्त्व से एक हो  
धरा-आकाश, जड़-चेतन से एक
शुद्ध प्रेम ही खिलायेगा श्रद्धा का फूल
  उड़ेल दी श्रद्धा जब उसके चरणों में
तब जन्मेगी भक्ति
  बनेगा भक्त.. भगवान भी उसी क्षण !

2 टिप्‍पणियां: