गुरुवार, नवंबर 9

एक निपट आकाश सरीखा



एक निपट आकाश सरीखा



नयन खुले हों या मुँद जाएँ
जीवन अमि अंतर भरता है,
मन सीमा में जिसे बांधता
वह उन्मुक्त सदा बहता है !

चाह उठे उठ कर खो जाये
दर्पण बना अछूता रहता,
एक निपट आकाश सरीखा
टिका स्वयं में कुछ ना कहता !

अकथ कहानी जिसने बाँची
चकित ठगा सा चुप हो जाता,
जाने कितने वेष धरे हैं  
युग युग स्वयं को दोहराता !   

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