मौसम
मौसम आते हैं जाते हैं
वृक्ष पुनः-पुनः बदला करते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली हो चुभती है
कभी तपाती.. आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती है
निरंतर प्रवाह से जल धार के !
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार !
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता है मन
कैसा पावन हो जाता प्रौढ़ का मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में.. !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-10-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2769 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
उदारता के साथ वृद्धावस्था को स्वीकारने का संदेश देती, बहुत प्रभावपूर्ण, सार्थक रचना । बधाई आदरणीय अनिता जी ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंइसी का नाम जीवन है .बहुत खूबसूरत रचना .
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंये तो मौसम का बदलाव है ... पतझड़ के बाद नई कोम्प्लें भी तो फूटती हैं ... नए पत्ते आते हैं ... ऐसे ही शरीर ख़त्म होने के बाद नया आत्मा नए वस्त्र पाती है ...
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने दिगम्बर जी !
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