शुक्रवार, फ़रवरी 8

रस की धार निरंतर बहती



रस की धार निरंतर बहती

देह व मन के घाट अधूरे 
इन पर ही जो डाले डेरा, 
उस से कैसे नैन मिलेंगे 
स्वयं के घर न डाला फेरा !

एक पिपासा जगे न जब तक 
राह नहीं निज घर की मिलती, 
सूना सा घर-आँगन तन का 
 मन में कोई कली न खिलती ! 

रस की धार निरंतर बहती 
बाहर ढूँढ़ रहा जग सारा, 
कोई अपना हाथ पकड़ ले 
दिखला दे वह कूल किनारा ! 

बंटती तृप्ति बिन मोल जहाँ 
सहज सुखों का एक भंडार, 
गली-गली क्यों फिरता आखिर 
निज आँचल में बांधे प्यार ! 


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