रविवार, फ़रवरी 10

जाने कितने पर्वत नापे


जाने कितने पर्वत नापे


अनगिन बार खिलाये उपवन,
कंटक अनगिन बार चुभे हैं,
जाने कितने पर्वत नापे
कितनी लहरों संग तिरे हैं !

मंजिल अनजानी ही रहती
द्वार न उसका खुलता दिखता,
एक चक्र में डोले जीवन
सार कहीं ना जिसका मिलता !

बार-बार इस जग में आकर
दांवपेंच लड़ाए होंगे,
अंधकार में ठोकर खाकर
फिर-फिर नैन गँवाए होंगे !

भय भीत पर खड़ा है जीवन
कैसे मन को विश्राम मिले,  
सत्य से आँख मिले न जब तक
क्योंकर अंतर में राम मिले !


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