जाने कितने पर्वत नापे
अनगिन बार खिलाये उपवन,
कंटक अनगिन बार चुभे हैं,
जाने कितने पर्वत नापे
कितनी लहरों संग तिरे हैं !
मंजिल अनजानी ही रहती
द्वार न उसका खुलता दिखता,
एक चक्र में डोले जीवन
सार कहीं ना जिसका मिलता !
बार-बार इस जग में आकर
दांवपेंच लड़ाए होंगे,
अंधकार में ठोकर खाकर
फिर-फिर नैन गँवाए होंगे !
भय भीत पर खड़ा है जीवन
कैसे मन को विश्राम मिले,
सत्य से आँख मिले न जब तक
क्योंकर अंतर में राम मिले !
खूबसूरत अनूठा लेखन , बधाई आपको !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सतीश जी !
हटाएंवाह सुंदर सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संजय जी !
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