शनिवार, फ़रवरी 23

एक जागरण ऐसा भी हो



एक जागरण ऐसा भी हो


पल में गोचर हो अनंत यह
इक दृष्टिकोण ऐसा भी हो,
जिसकी कोई रात न आये
एक जागरण ऐसा भी हो !

कुदरत निशदिन जाग रही है
अंधकार में बीज पनपते,
गहन भूमि के अंतर में ही
घिसते पत्थर हीरे बनते !

राह मिलेगी उसी कसक से
होश जगाने जो आती है,
धूप घनी, कंटक पथ में जब
एक ऊर्जा जग जाती है !

प्रीत चाहता उर यदि स्वयं तो

अप्रीति के करे न साधन,
मंजिल की हो चाह हृदय में
अम्बर में उड़ने से विकर्षण ?


डोर बँधी पंछी पग में जब
कितनी दूर उड़ान भरेगा,
सुख स्वप्नों में खोया अंतर
दुःख की पीड़ा जाग सहेगा !





15 टिप्‍पणियां:

  1. डोर बँधी पंछी पग में जब
    कितनी दूर उड़ान भरेगा,
    सुख स्वप्नों में खोया अंतर
    दुःख की पीड़ा जाग सहेगा !
    ...एक शाश्वत सत्य..बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति...

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  2. गहन भूमि के अंतर में ही
    घिसते पत्थर हीरे बनते !

    यही सच है ।

    बहुत अच्छी रचना ।

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  3. बहुत बहुत आभार सेंगर जी !

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