सोमवार, अप्रैल 15

सुरमई शाम ढली




सुरमई शाम ढली


खग लौट चले निज नीड़ों को
भरकर विश्वास सुबह होगी !

बरसेगा नभ से उजियारा
फिर गगन परों से तोलेंगे,
गुंजित होगा यह जग सारा
जब नाना स्वर में बोलेंगे !

इक रंगमंच जैसे दुनिया
हर पात्र यहाँ अभिनय करता,
पंछी, पादप, पशु, मानव भी
निज श्रम से रंग भरा करता !

किससे पूछें ? हैं राज कई
कब से ? कहाँ हो पटाक्षेप,
बस तकते रहते आयोजन
विस्मय से आँखें फाड़ देख !

अंतर में जिसने प्रश्न दिए
उत्तर भी शायद वहीं मिलें,
कभी नेत्र मूँद हो स्थिर बैठ
मन के सर्वर में कमल खिलें !

बस खो जाते हैं प्रश्न, नहीं
उत्तर कोई भी मिलता है,
इक मीठा-मीठा स्वाद जहाँ
इक दीप अनोखा जलता है !

बाहर उत्सव भीतर नीरव
कुछ कहना और नहीं कहना,
अंतर से मधुरिम धारा का
 धीमे-धीमे से बस बहना !


2 टिप्‍पणियां:

  1. समय देता है कई प्रश्नों के जवाब ... समय आने पट मार्ग मिल जाता है ... अंतस स्वतः ले जाता है उस मार्ग पर जहाँ सतत बहना होता है सहज हो कर बस एकाकार करना होता हिया उस प्राकृति से उस श्रृष्टि से ... सुन्दर रचना स्वतः नए मार्ग खोजती ...

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    1. सही कहा है आपने, समय के पास ही सब जवाब हैं..स्वागत व आभार !

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