गुरुवार, अप्रैल 4

राह पर मन की गुजरते


राह पर मन की गुजरते


आज जीलें अभी जीलें
जो कल कभी आया नहीं,
जिन्दगी ने गीत उसके
सुर साज पर गाया नहीं !

सुख समाया इस घड़ी में
हम जहाँ पल भर न ठहरे,
वह छुपा उस रिक्तता में
जिसे भरने में लगे थे !

अभी रौनक, रंग, मेले
पलक झपकी खो गये सब,
एक पल में जो सजे थे
स्वप्न सारे सो गये अब !

व्यर्थ की कुछ गुफ्तगू ही
कभी इसकी कभी उसकी,
राह पर मन की गुजरते
हर घड़ी बस कारवां ही !

चूकती जाती घड़ी हर
मिलन का पल बिखर जाता,
क्या मिला क्या और पाना
दिल यही नगमा सुनाता !
  


4 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य में कल को पकड़ने की दौड़ में हम आज को विस्मृत कर देते हैं। बहुत सारगर्भित प्रस्तुति।

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  2. मिलना पाना खोना समय के हाथ है ... और इंसान इसी में डूबा रहे तो जीवन व्यर्थ हो जाता है ... सुन्दर रचना ...

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    1. कविता के भाव को आत्मसात करती हुई सुंदर टिप्पणी..आभार !

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