शनिवार, जून 15

कुछ ऐसा है कि




कुछ ऐसा है कि


आँखें बाहर देखती हैं
मन संसार की सुनता है
कान शब्दों में डूबे हैं
और वह भीतर बैठा है !

फिर इसमें कैसा आश्चर्य ?
हम कभी उससे मिले नहीं...
अजनबियों के साथ ही जीवन बिताया
तभी संग रहकर सबके.. सबने खुद को
नितांत अकेला ही पाया !

इसको कभी उसको अपना भी बनाया
पर अपना सा जहाँ में.. एक ना आया
जिसकी तलाश है वह तो कहीं और है
दूर है वहाँ से..अपना जहाँ ठौर है !

फूलों को सराहा निर्झरों  को चाहा
कभी झलक मिली एक पलकें भी मुंदीं
एक किरण रोशनी.. जाने क्या कर गयी
उस ने ही शुभ घड़ी भेजा था पैगाम
सीता का राम वह या राधा का श्याम !


7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ... जो भी है जिसने भेजा पैगाम ... जब दिल ने उसे पाया तभी सवेरा ...
    मन में झांकना भी उसी से तो संभव है ... ऐसे कहाँ कोई भीतर देख पाता है अपने भी ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही कहा है आपने..वही बुलाता है, स्वागत व आभार !

      हटाएं
  2. स्वागत व आभार ओंकार जी..

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर भावों से सुसज्जित अनुपम रचना ।

    जवाब देंहटाएं