भूटान यात्रा - ४
पारो में हमारा
दूसरा दिन है. सुबह नदी किनारे टहलने गये.
पानी ठंडा था, कुछ देर पानी में पैर रखने से ही सारे शरीर में ठंडक का अहसास होने
लगा. गुलाब की झाड़ियों को निहारा और कुछ तस्वीरें लीं. बगीचे में रखी लकड़ी की एक
बेंच पर बैठकर प्राणायाम किया. आठ बजे नीमा ड्राइवर टोयोटा लेकर आया गया. धर्मा
रिजार्ट से तीन अन्य सहयात्रियों को लेकर हम 'टाइगर नेस्ट' के बेस कैम्प पहुँचे,
जहाँ पहले से ही पचास-साठ छोटी-बड़ी कारें मौजूद थीं. टिकट लेकर तथा पचास रूपये
किराये पर छड़ी लेकर हम नौ सो मीटर ऊँचे टाइगर नेस्ट पर जाने के लिए रवाना हुए.
ऊँचे-नीचे रास्तों से होते हुए तथा रास्ते में भूटान के सुंदर दृश्यों को निहारते
हुए कहीं-कहीं खड़ी चढ़ाई करके हम डेढ़ घंटे बाद एक कैफेटेरिया तक पहुँचे. कुछ लोगों
ने निश्चय किया कि वे आगे नहीं जायेंगे. हम कुछ यात्रियों के साथ मंजिल पर जाने के
लिए रवाना हुए. इस बार चढ़ाई पहले से कठिन थी तथा आगे जाकर अनगिनत सीढ़ियों से उतरना
व चढ़ना था. मन्दिर पहुंचने से पहले कल-कल निनाद करता हुआ एक सुंदर झरना दिखाई दिया
जो काफी ऊंचाई से गिर रहा था. जिस का
दृश्य देखकर लोग सारी थकान भूल गये और तस्वीरें उतारने लगे. उसके बाद मुख्य इमारत
नजर आई जो गुरु पद्मसम्भव का मन्दिर है. गाइड सोनम ने सभी स्थानों का दर्शन कराया
तथा उनका महत्व बताया. मन्दिर का वातावरण बहुत पवित्र ऊर्जा से भरा हुआ था, सुंदर
सुगंध बिखरी थी तथा कुछ पुजारी ध्यान में मग्न थे, कुछ लोगों को पवित्र जल दे रहे
थे. मुक्ति की कामना करके जब मन्दिर से बाहर निकले तो मन शांति और आश्चर्यजनक
ऊर्जा का अनुभव कर रहा था. कैफेटेरिया तक की वापसी की यात्रा सहज ही पूर्ण हो गयी.
अभी शेष सहयात्री नहीं पहुँचे थे सो एक घंटा प्रतीक्षा करके तीन बजे हम बेस कैम्प
के लिए रवाना हुए, एक घंटे में पहुंच गये. चढ़ाई जितनी कठिन थी उतराई उतनी ही आसान
थी. ऐसे ही जैसे किसी को भी जीवन में उच्च आदर्शों को पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती
है, सामान्य जीवन के लिए अथवा पतन के लिए किसी को विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता.
पारो में तीसरा दिन
है. सवा दस बजे नीमा गाडी लेकर आ गया. पहले मन्दिर देखने गये पर वह लंच का समय
होने के कारण बंद हो गया था. उसके बाद भूटान का संग्रहालय देखने गये, जहाँ बड़े-बड़े
कक्षों में यहाँ की मुखौटा कला, चित्रकला आदि को दर्शाया गया है. अद्भुत मुखौटे थे
तथा अति प्राचीन पेंटिंग्स थीं. वहाँ से पारो शहर का सुंदर दृश्य भी दिखाई पड़ रहा
था. बगीचे में पीले रंग के फूलों वाला एक सुंदर वृक्ष था, जिसमें से भीनी-भीनी गंध
आ रही थी. इसके बाद बियर फैक्ट्री देखने गये, जहाँ बड़े-बड़े टैंकर्स तथा अन्य उपकरण
रखे हुए थे. यहाँ से हम मन्दिर गये जो अब खुल गया था. अंतिम पड़ाव था वह स्थान जहाँ
पारंपरिक पोषाक पहनकर तस्वीर खिंचानी थी और धनुष-बाण व हाथ से छोटे तीरों को चलाकर
निशाना लगाना था. इसमें सभी ने उत्साह से भाग लिया. होटल पहुँचे तो अँधेरा हो गया
था.
सुबह नाश्ते के लिए
गये तो एक अन्य भारतीय शेफ से परिचय हुआ, उसने बहुत आग्रह करके कई व्यंजन खिलाये
तथा दोपहर के लिए स्नैक्स भी पैक कर दिए. वह देहरादून का रहना वाला है और दो
वर्षों से भूटान में है. एक दिन पहले भी एक भारतीय शेफ मिला था. भोजन परोसने वाले भी
बहुत शालीन हैं और बेहद स्नेह से खिलाते हैं. मेहमानों की आवभगत करना उन्हें आता है.
साढ़े बारह बजे होटल से चेक आउट किया, एक
घंटा बाजार में बिताया, कुछ उपहार खरीदे और डेढ़ बजे हवाई अड्डे आ गये. भूटान में
बिताये सुखद दिनों की स्मृतियाँ लेकर शाम होने से पूर्व ही भारत आ गये.
भूटान में लोग सफाई
के प्रति अति संवेदनशील हैं और उनमें अपने गुरुओं तथा भगवान बुद्ध के प्रति
श्रद्धा कूट-कूट कर भरी है. वे उनके बारे में जब बात करते हैं तो सच्चाई और प्रेम
उनके चेहरे व आँखों से झलकता है. अभी भी वे संसार की आधुनिक बुराइयों, मशीनी
जिन्दगी और प्रदूषण तथा हिंसा से बहुत दूर हैं, पर कब तक वे अछूते रह पायेंगे, कहना
कठिन है.
बहुत सुन्दर और सजीव वर्णन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
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