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सोमवार, अक्टूबर 5

बरसेगा वह बदली बनकर

 बरसेगा वह बदली बनकर 

उर में प्यास लिए राधा की 

कदमों में थिरकन मीरा की, 

अंतर्मन में निरा उत्साह 

उसकी बांह गहो !


जीवन की आकुलता से भर 

प्राणों की व्याकुलता से तर, 

लगन जगाए उर में गहरी 

नित नव गीत रचो !


बाँटो जो भी पास तुम्हारे 

कोई हँसी दबी जो भीतर, 

शैशव की वह तुतलाहट भी 

खिल कर राह भरो !


झर जाने दो पीले पत्ते 

सारे दुःख अपने अंतर से, 

तोड़ श्रृंखला जन्मों की हर 

दिल की बात कहो !


दीप जलाये प्रीत का सुंदर 

पग रखो फिर उसके पथ पर, 

गिर जाने दो हर भय, संशय 

उसकी चाह करो !


अब वह मन्दिर दूर नहीं है 

दूरी या देरी होने पर 

किन्तु न करना रोष जरा भी 

उसकी राह तको !


बरसेगा वह बदली बनकर 

कभी प्रीत की चादर तनकर,

ढक लेगा अस्तित्व् को सारे 

उसके संग रहो !


बुधवार, अगस्त 5

राम

राम 


त्रेता युग में जन्मे थे 
मर्यादापुरुषोत्तम राम,  
किन्तु आज भी अति पावन 
परम उनका सुंदर नाम !

अनंत को सांत बनाया 
अवतरित  होकर विष्णु ने, 
ना रहे राम पर सीमित
भारत की सीमाओं में !

राम नाम मधुर जाप ने 
सारे जग को गुंजाया, 
हरि अनंत  कथा अनंता 
हर युग ने गायी  गाथा !

जन्मस्थल पर हो मन्दिर 
स्वप्न आज यह पूर्ण हुआ,  
राम राज्य लौटा लाएं   
वर्तमान बाट देखता !

हो स्थापना  मूल्यों की 
 राजाराम चले  जिन पर,
दुनिया को मार्ग दिखाया  
आदर्श पुत्र, भाई बन  !

सीता का नाम सदा ही  
राम से आगे लगाया,  
सहे अनेक अपवाद भी 

शनिवार, दिसंबर 7

वही सदा मुक्त है


वही सदा मुक्त है

जो भी सुना है
जो भी अनसुना रह गया है
जो भी जाना है
जो भी अजाना रह गया है
जो भी कहा है
जो भी अनकहा रह गया है
जो भी लखा है
जो भी अदेखा रह गया है
वह इन सबसे जुदा है
वही खुदा है !

जो मंदिर में भी है
जो मंदिर में ही नहीं है
जो मस्जिद में भी है
जो मस्जिद में ही नहीं है
जो गिरजे में भी है
जो गिरजे में ही नहीं है
जो गुरुद्वार में  है
गुरुद्वार में ही नहीं है
वही तो सब तरफ है
वही परम है !

जो कल भी था
जो कल भी रहेगा
जो आज भी है
आज के बाद भी रहेगा
जो समय से पूर्व था
समय के बाद भी रहेगा
वह कालातीत है
वही प्रीत है !

जो अति सूक्ष्म है
जो अति विशाल है
जो निकटस्थ है
जो सबसे दूर है
जो अनंत है
वही परम् आनंद है !

जो आँखों से दिखाता है
नजर नहीं आता है
जो कानों से सुनाता है
सुना नहीं जाता है
जो मन से लुभाता है
नींदों में सुलाता है
जो नित्य जाग्रत है
वही सदा मुक्त है !

शनिवार, जून 8

भूटान यात्रा - ४


भूटान यात्रा - ४ 


पारो में हमारा दूसरा दिन है. सुबह नदी  किनारे टहलने गये. पानी ठंडा था, कुछ देर पानी में पैर रखने से ही सारे शरीर में ठंडक का अहसास होने लगा. गुलाब की झाड़ियों को निहारा और कुछ तस्वीरें लीं. बगीचे में रखी लकड़ी की एक बेंच पर बैठकर प्राणायाम किया. आठ बजे नीमा ड्राइवर टोयोटा लेकर आया गया. धर्मा रिजार्ट से तीन अन्य सहयात्रियों को लेकर हम 'टाइगर नेस्ट' के बेस कैम्प पहुँचे, जहाँ पहले से ही पचास-साठ छोटी-बड़ी कारें मौजूद थीं. टिकट लेकर तथा पचास रूपये किराये पर छड़ी लेकर हम नौ सो मीटर ऊँचे टाइगर नेस्ट पर जाने के लिए रवाना हुए. ऊँचे-नीचे रास्तों से होते हुए तथा रास्ते में भूटान के सुंदर दृश्यों को निहारते हुए कहीं-कहीं खड़ी चढ़ाई करके हम डेढ़ घंटे बाद एक कैफेटेरिया तक पहुँचे. कुछ लोगों ने निश्चय किया कि वे आगे नहीं जायेंगे. हम कुछ यात्रियों के साथ मंजिल पर जाने के लिए रवाना हुए. इस बार चढ़ाई पहले से कठिन थी तथा आगे जाकर अनगिनत सीढ़ियों से उतरना व चढ़ना था. मन्दिर पहुंचने से पहले कल-कल निनाद करता हुआ एक सुंदर झरना दिखाई दिया जो काफी ऊंचाई से गिर रहा था. जिस  का दृश्य देखकर लोग सारी थकान भूल गये और तस्वीरें उतारने लगे. उसके बाद मुख्य इमारत नजर आई जो गुरु पद्मसम्भव का मन्दिर है. गाइड सोनम ने सभी स्थानों का दर्शन कराया तथा उनका महत्व बताया. मन्दिर का वातावरण बहुत पवित्र ऊर्जा से भरा हुआ था, सुंदर सुगंध बिखरी थी तथा कुछ पुजारी ध्यान में मग्न थे, कुछ लोगों को पवित्र जल दे रहे थे. मुक्ति की कामना करके जब मन्दिर से बाहर निकले तो मन शांति और आश्चर्यजनक ऊर्जा का अनुभव कर रहा था. कैफेटेरिया तक की वापसी की यात्रा सहज ही पूर्ण हो गयी. अभी शेष सहयात्री नहीं पहुँचे थे सो एक घंटा प्रतीक्षा करके तीन बजे हम बेस कैम्प के लिए रवाना हुए, एक घंटे में पहुंच गये. चढ़ाई जितनी कठिन थी उतराई उतनी ही आसान थी. ऐसे ही जैसे किसी को भी जीवन में उच्च आदर्शों को पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, सामान्य जीवन के लिए अथवा पतन के लिए किसी को विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता.

पारो में तीसरा दिन है. सवा दस बजे नीमा गाडी लेकर आ गया. पहले मन्दिर देखने गये पर वह लंच का समय होने के कारण बंद हो गया था. उसके बाद भूटान का संग्रहालय देखने गये, जहाँ बड़े-बड़े कक्षों में यहाँ की मुखौटा कला, चित्रकला आदि को दर्शाया गया है. अद्भुत मुखौटे थे तथा अति प्राचीन पेंटिंग्स थीं. वहाँ से पारो शहर का सुंदर दृश्य भी दिखाई पड़ रहा था. बगीचे में पीले रंग के फूलों वाला एक सुंदर वृक्ष था, जिसमें से भीनी-भीनी गंध आ रही थी. इसके बाद बियर फैक्ट्री देखने गये, जहाँ बड़े-बड़े टैंकर्स तथा अन्य उपकरण रखे हुए थे. यहाँ से हम मन्दिर गये जो अब खुल गया था. अंतिम पड़ाव था वह स्थान जहाँ पारंपरिक पोषाक पहनकर तस्वीर खिंचानी थी और धनुष-बाण व हाथ से छोटे तीरों को चलाकर निशाना लगाना था. इसमें सभी ने उत्साह से भाग लिया. होटल पहुँचे तो अँधेरा हो गया था.


सुबह नाश्ते के लिए गये तो एक अन्य भारतीय शेफ से परिचय हुआ, उसने बहुत आग्रह करके कई व्यंजन खिलाये तथा दोपहर के लिए स्नैक्स भी पैक कर दिए. वह देहरादून का रहना वाला है और दो वर्षों से भूटान में है. एक दिन पहले भी एक भारतीय शेफ मिला था. भोजन परोसने वाले भी बहुत शालीन हैं और बेहद स्नेह से खिलाते हैं. मेहमानों की आवभगत करना उन्हें आता है. साढ़े बारह बजे  होटल से चेक आउट किया, एक घंटा बाजार में बिताया, कुछ उपहार खरीदे और डेढ़ बजे हवाई अड्डे आ गये. भूटान में बिताये सुखद दिनों की स्मृतियाँ लेकर शाम होने से पूर्व ही भारत आ गये.

भूटान में लोग सफाई के प्रति अति संवेदनशील हैं और उनमें अपने गुरुओं तथा भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा कूट-कूट कर भरी है. वे उनके बारे में जब बात करते हैं तो सच्चाई और प्रेम उनके चेहरे व आँखों से झलकता है. अभी भी वे संसार की आधुनिक बुराइयों, मशीनी जिन्दगी और प्रदूषण तथा हिंसा से बहुत दूर हैं, पर कब तक वे अछूते रह पायेंगे, कहना कठिन है.

बुधवार, जनवरी 9

नया वर्ष


नया वर्ष


समय के अनंत प्रवाह में...
गुजर जाना एक वर्ष का, मानो
सागर में एक लहर का उठना
और खो जाना !
और इस दिन
लाखों की आतिशबाजी जलाना
उस दुनिया में ?
जहाँ लाखों घरों में अँधेरा है
एक दिये के लिए भी नहीं है तेल
नया वर्ष तो तब भी आएगा,
जब हम कान फोड़ पटाखे नहीं जलायेंगे
नहीं खोएंगे होश आधी रात को सडकों पर
अजीब रिवाज जन्म ले रहे हैं शहर की हवा में
नये साल के पहले दिन
इच्छाओं की सूची बहुत लम्बी होती है मनों में
तभी तो मन्दिरों के बाहर पंक्तियाँ भी
दोपहर तक खत्म होने को नहीं आतीं !

शनिवार, मई 23

वाराणसी – एक अंतहीन उत्सव


वाराणसी – एक अंतहीन उत्सव

हम अर्धरात्रि दो बजे वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरे. मुख्यद्वार से सटा हॉल खचाखच भरा था, पुल पर भी बोरिया-बिस्तर लिए सैकड़ों व्यक्ति थे, कुछ बैठे, कुछ लेटे हुए सोए थे. उनमें से कई तीर्थयात्री रहे होंगे जो आस-पास के गावों तथा कस्बों से गंगा मैया तथा बाबा विश्वनाथ के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने हर पर्व पर वाराणसी आते हैं. कुछ मेडिकल कॉलेज में इलाज करने आये होंगे. स्टेशन से बाहर निकले तो सड़क पर भी चहल-पहल थी. ऑटो रिक्शा वाले ताजा-तरीन मूड में थे, कोई भी उनींदा नजर नहीं आया. कहते हैं एक अजीब सी मस्ती या खुमारी यहाँ की हवा में है, जिसमें हर तबके के लोग डूबे रहते हैं. वाराणसी, जिसे बनारस और काशी भी कहते हैं, के बारे में कहा जाता है कि ‘सात वार और नौ त्यौहार’, अर्थात यहाँ किसी दिन एक से अधिक पर्व भी मनाया जाता है. यहाँ स्थान-स्थान पर आस्था के प्रतीक स्थल हैं, शहर के हर मुख्य तिराहे या चौराहे पर हनुमानजी, शिवजी अथवा देवी के मन्दिर हैं, कहते हैं काशी के कंकर-कंकर में शंकर का वास है. अगले एक सप्ताह तक हम बनारस के इसी रूप को निकट से महसूस करने की ख्वाहिश लेकर आये थे.

सुबह उठकर हम विश्व प्रसिद्ध घाट देखने निकले. जो हजारों वर्षों से काशी की शोभा बढ़ा रहे हैं. वर्तमान में यहाँ अठाहरवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में निर्मित पत्थर की असंख्य सीढ़ियों वाले घाट तथा उन पर स्थिर अनेक भव्य मन्दिर, महल, आलीशान द्वार तथा हवा का आनंद लेने के लिए बने गई खास इमारतें हैं. हम रिक्शे से सीधे दशाश्वमेध घाट आये, जो सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा स्वच्छ घाट है. बड़े-बड़े श्वेत व गुलाबी आभा लिए पत्थरों द्वारा बनाये गये घाटों तथा जल तक उतरती सीढ़ियों ने हमारा मन मोह लिया तथा कल-कल बहती गंगा का नीला जल हृदय को भीतर तक शीतल कर गया. काशी में गंगा नदी का नहीं आस्था का नाम है. गंगा के प्रति लोगों की भक्ति यहाँ देखते ही बनती है. बांस की छतरी लगाये, लकड़ी के तख्तों पर अपना आसन बिछाए पंडे-पुजारी दूर प्रदेशों से आये यात्रियों को पूजा करवा रहे थे, तथा उनके सामान की सुरक्षा भी कर रहे थे. एक स्थान पर हमें दक्षिण भारत से आया एक परिवार मंत्रोच्चारण करता हुआ दिखा. जल को श्रद्धा से मस्तक पर छुआते, आचमन करते तथा डुबकी लगाते सैकड़ों यात्री सुंदर दृश्य उत्पन्न कर रहे थे. कहीं कोई बालक तैरने का अभ्यास कर रहा था तो कहीं कोई महिला किनारे पर बैठ लोटे से सिर पर जल उडेंल रही थी. नौका भ्रमण कराते हुए नाविक ने बताया कि बरसात में जब पानी सीढ़ियों को ढक लेता है नाव चलाना जोखिम भरा काम होता है. सर्दियों में जब गंगा का शांत रूप देखने को मिलता है, अंतिम सीढ़ी तक उतर कर जल में प्रवेश मिलता है.

गंगा की शोभा प्रातःकाल से रात्रि तक कई रूपों में परिलक्षित होती है. गंगा जो नित्य नई है और हजारों वर्ष पुरानी भी, साक्षी है अनेक राजवंशों की, जो अपने समय में उन्नति के शिखर पर पहुंचे थे. जिसके स्मृति चिह्न घाटों के रूप में आज भी मौजूद हैं. उनमें अहल्याबाई होल्कर हैं, जयपुर के महाराजा जयसिंह, मराठा सरदार पेशवा अमृतराव हैं. त्रिपुराभैरवी घाट दक्षिण भारतीय लोगों का निवास स्थल है, जहाँ हजारों की संख्या में आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक से यात्री आते हैं.

हमने देखा हर घाट चाहे वह छोटा हो या बड़ा, अपनी अलग पहचान लिए है. लगभग सौ घाटों में से कुछ समय के साथ ढह गये हैं, कुछ पूरी आन-बान के साथ हर सुबह स्नानार्थियों का स्वागत करते हैं. कुछ का नवीनीकरण हुआ है. कितनों के किनारे आधुनिक होटल बन गए हैं, कुछ में बनारसी साड़ियों की दुकानें व कारखाने भी हैं. कई घाटों पर योगकेंद्र भी तथा कुछ पर लोगों ने अपना निवास भी बना रखा है. यहाँ नित्य एक उत्सव का माहौल बना रहता है. नगर के दक्षिणी छोर पर स्थित है अस्सी घाट, गंगा व असी नदी के संगम स्थल पर स्थित यह घाट बनारस के प्राचीनतम स्थलों में से है. इसके बाद तुलसी घाट, हनुमान घाट हरिश्चन्द्र घाट तथा केदार घाट हैं. हरिश्चन्द्र तथा मणिकर्णिका दोनों श्मशानघाट हैं, वहाँ जाकर जीवन की नश्वरता का बोध हमें गंभीर बना गया. काशी को मुक्ति स्थल माना गया है, यह पंच तीर्थों में से एक है. नौकावाहक ने जो हमारे गाइड का काम भी कर रहा था, कई घाटों से जुडी कथाएं भी सुनायीं. राजा हरिश्चन्द्र का महल, डोम के रूप में उनका निवास स्मृति रूप में अभी तक सुरक्षित है. जहाँ तुलसी ने रामचरितमानस लिखी थी, जहाँ कबीर को गुरू मिले थे, वे स्थान तथा जहाँ शंकर का कर्णफूल गिरा था और पार्वती का मणि, वह कुंड आज भी मौजूद है. काशी में समय जैसे ठहर गया है, चाहे दुनिया कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है, यहाँ के मन्दिर तथा घाट अपनी प्राचीन भव्यता को सुरक्षित रखे हुए हैं.

संध्या काल में होने वाली गंगा आरती में शामिल होने के लिए हमने पुनः नाव का आश्रय लिया. नाविक ने अनेक छोटी-बड़ी नौकाओं के साथ अपनी नाव भी स्थिर कर ली. आस-पास के सभी स्थान लोगों से भर गये थे, कुछ चबूतरों व सीढ़ियों पर बैठकर प्रकाश के इस उत्सव का आनंद उठा रहे थे. धूप, दीप, लोहबान, कपूर, पुष्प तथा कई सामग्रियों के द्वारा सात पुजारियों ने जब मंत्रोच्चार करते हुए आरती की तब सभी मंत्रमुग्ध हो गये. जल में दीपों का प्रतिबिंब तथा नदी की धारा के साथ बहते पत्तों की नाव में तैरते दीपक जाने किस लोक की खबर दे रहे थे.

अगले दिन मन्दिर दर्शन का कार्यक्रम था. सबसे पहले हमारा रिक्शा रुका, महा मृत्युंजय मन्दिर पर, जहाँ दर्शनार्थियों की कतार पहले से ही लगी थी, हमने बाएं द्वार से शिव पिंडी के दर्शन किये. हमें आगे पैदल ही जाना पड़ा, संकरी गली में दो ट्रक आमने-सामने आ जाने से आगे नहीं जाया जा सकता था. रास्ता पूछते-पूछते हम काशी के प्रसिद्ध काल भैरव मन्दिर पहुंचे. काशीवासी इन्हें काशी का कोतवाल मानते हैं, सर्वप्रथम इनके दर्शन का विधान है. संकटादेवी के मन्दिर में हम सीढियाँ चढ़ते हुए पहुंचे तो श्वास फूल रही थी, घाट पर स्थित अनेक मन्दिरों में से यह एक है. इसके बाद भूल-भुलैया गलियों में चलते-चलते हम विश्वनाथ गली पहुंचे जहाँ विश्वप्रसिद्ध विश्वनाथ मन्दिर है. कई बार हुए आतंकवादी हमलों के कारण तथा विवादित क्षेत्र होने के कारण यहाँ पुलिस का सख्त पहरा था. इस मन्दिर का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने अठाहरवीं शताब्दी में करवाया था. इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने लगभग बाइस टन सोना लगवाया था.

उसी दिन संध्या के समय नगर के तीन प्रसिद्ध मन्दिर – बिरला मन्दिर, जो बनारस हिंदू विश्व विद्यालय में स्थित है, संकट मोचन हनुमान मन्दिर, जो संतकवि तुलसीदास को समर्पित है, तथा श्री दुर्गा मन्दिर देखने गये. नवरात्रि के कारण हर जगह भीड़ थी. दुर्गा मन्दिर के सामने तो व्रती स्त्रियों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी थीं, जो हमें धर्म के बदलते हुए रूप पर सोचने को विवश कर रही थीं. अगले दिन मौसम गर्म था सो हमने सुबह-सवेरे ही नाव से गंगा के दूसरे तट पर जाकर, जहाँ पानी अपेक्षाकृत स्वच्छ था तथा भीड़ भी कम थी, स्नान किया, गंगा का रेतीला तट मीलों तक पसरा हुआ था.


वाराणसी से मात्र दस किमी दूर बौद्धों का पवित्र विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल सारनाथ स्थित है. शाम सारनाथ के हरे भरे बगीचों में हिरणों को बेफिक्री से घूमते हुए देखने तथा शीतल हवा का आनंद लेने में बितायी. भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम पांच शिष्यों को जिस स्थान पर उपदेश दिया था वहाँ सुंदर भव्य मूर्तियों द्वारा बना स्मारक सभी दर्शनार्थियों को आकर्षित करता है. विभिन्न देशों के पर्यटक बौद्ध लामाओं द्वारा दिए गये प्रवचन को सुनने के लिए एक मन्दिर के पास लॉन में कतार बद्ध बैठे थे. एक अन्य समूह मौन धारण किये किसी साधना कक्ष से निकल रहा था. महात्मा बुद्ध के अवशेषों को समेटे स्तूप जो तेतीस मीटर ऊंचा है और लाल इंटों व पत्थरों से बना है, हमें दूर से बुला रहा था. सारनाथ संग्रहालय में सम्राट अशोक की भव्य लाट तथा पुरानी मूर्तियाँ, लेख तथा बर्तन देखकर किसे भारत के स्वर्णिम अतीत पर गर्व नहीं होगा. हमने पैदल घूमते हुए चीनी, जापानी व तिब्बती बौद्ध मन्दिर देखे. अपने पड़ाव के अंतिम दिन हम वरुणा नदी के तट पर नये बने लाल बहादुर शास्त्री घाट को देखने गये. कई सुखद स्मृतियाँ लेकर हमने उसी रात्रि वापसी की यात्रा आरम्भ की.

सोमवार, जनवरी 19

शहंशाहों की रीत निराली

शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !

व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !

श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !

किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !

तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !

जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?

कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !

वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !

इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !

शनिवार, मई 25

मन राधा बस उसे पुकारे


मन राधा बस उसे पुकारे


झलक रही नन्हें पादप में
एक चेतना एक ललक,
कहता किस अनाम प्रीतम हित
खिल जाऊँ उडाऊं महक !

पंख तौलते पवन में पाखी
यूँ ही तो नहीं हैं गाते,
जाने किस छुपे साथी को
टी वी टुट् में वे पाते !

चमक रहा चिकना सा पत्थर
मंदिर में गया जो पूजा,
जाने कौन खींच कर लाया
भाव जगे न कोई दूजा !

चला जा रहा एक बटोही
थम कर किसकी ओर निहारे,
गोविन्द राह तके है भीतर
मन राधा बस उसे पुकारे !