माँ
माँ दुआओं का ही दूजा नाम है
उसके दामन में सहज विश्राम है
सर्द थीं कितनी हवाएं रोक न पायीं कभी
नित लगीं घर काम में मुँह अंधेरे उठ गयीं
गर्म चूल्हे की तपन जलता हुआ तंदूर था
मुस्कुराते ही दिखीं यादों में हर मंजर खुला
चन्द लम्हे फुरसतों के जब कभी उन्हें मिले
ली सलाई हाथ में ऊन के गोले खुले
रेडियो पर सुन कहानी पत्रिका अखबार पढ़तीं
इतिहास दसवीं में पढ़ा याद था उनको जुबानी
छोड़ कर चल दीं जहां दिल से ना जा पायीं मगर
साया बनकर साथ हैं हर घड़ी आशीष बन कर
आज माँ की उन्नीसवीं पुण्यतिथि है
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 28
जवाब देंहटाएंजनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(28-01-2020 ) को " चालीस लाख कदम "(चर्चा अंक - 3594) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
...
कामिनी सिन्हा
चन्द लम्हे फुरसतों के जब कभी उन्हें मिले
जवाब देंहटाएंली सलाई हाथ में ऊन के गोले खुले
वाह।
शुक्रिया !
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमाँ पर बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
स्वागत व आभार सुधा जी !
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