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मंगलवार, अक्टूबर 22

देव और असुर

देव और असुर 


किन्हीं सबल क्षणों का नाम देव 

और दुर्बल क्षणों का नाम असुर रखकर 

मानव ने मुक्ति पा ली !


जब मन स्वस्थ है, सजग है 

आशान्वित है 

देव है हमारे साथ !


जब क्लांत है मन 

घिरा-घिरा किन्हीं अशुभ ग्रहों से 

माना कहीं नहीं है !


किंतु क्यों रहे मन में विषाद 

क्यों उखड़ें श्वासें 

क्यों निकले स्वेद बिंदु 

क्यों उर तड़पे 

सत्कर्म नहीं कुछ 

सिर्फ़ अक्रियता 

यही है असुर !

सोचें सारी कुंद हो जातीं 

जब साथ नहीं देव !


सोमवार, नवंबर 16

परिचित जो अंतर पनघट से

परिचित जो अंतर पनघट से

जग जैसा है बस वैसा है

हर नजर बताती कैसा है

 

कोई इक बाजार समझता

कोई खालिस प्यार समझता

विकट किसी को सागर जैसा

कोई धारे गागर जैसा

 

जग तो अपनी राह चल रहा

नादां मन स्वयं को छल रहा

 

कोई फूलों को चुन लेता

दूजा काँटों को बुन लेता

ताज बनाकर सिर पर पहने

आँसू बहा तुष्टि भर लेता

 

जग में दानव रहते आए

देव बहिष्कृत होते आए

 

देवों को इक सबल बनाता

दूजा रह विरक्त छुप जाता

जगत किसी को बंधन जैसा 

कोई निशदिन गीत सुनाता

 

वही पार उतरा इस तट से

परिचित जो अंतर पनघट से

 

जग की चिंता कौन करे अब

जगपति की वह शरण गहे जब

न बदला है न बदलेगा यह

बुद्ध, कबीर, नानक कहें सब   

सोमवार, जुलाई 13

अभय

अभय 

भयाक्रांत मन विचार नहीं करता 
वह केवल डरता है 
अस्तित्त्व के साथ एक नहीं होता 
संशय ही भीतर भरता है 
स्वप्नों के में भी डरा जाते हैं उसे पशु और दानव 
भूल ही जाता है वह कि देवों की संतान है मानव 
भय खबर देता है कि अभी आस्था अधूरी है 
अभय के लिए जागना जरूरी है 
कि अनंत से जुड़े हैं हम 
जो इस ब्रह्मांड का संचालक है 
वही हमारा भी पालक है 
भय की आँखों में झांकना होगा 
उसके पार ही वह अभय बसता है 
जो हर हाल में हँसता है 
जीवन का मोह जिसे नहीं बांधता 
उहापोह की अग्नि में मन को नहीं रांधता
अपनी ऊर्जा को नकार में नहीं खोता  वह 
सदा एक रस ही बहता है 
भय का क्या काम वहाँ 
जिस दिल में अभय रहता है ! 

शनिवार, अप्रैल 18

देव और मानव


देव और  मानव 


कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के सृजन का 
जो है साक्षी 
अरबों-खरबों आकाश गंगाओं की रचना का भी 
जिसके सम्मुख प्रतिक्षण
 जन्मते और नष्ट होते हैं लाखों नक्षत्र 
वही जो कहाता है महानायक ! 
शिव ! तांडव नर्तक !

इस अपार आयोजन का
 एक नन्हा सा अंश है वसुंधरा 
 सागरों, वनों, पशु-पंछियों संग 
जिस पर मानव उतरा
सृष्टि चालन में शिव का सहायक 
चाहता तो देव बन सकता था मानव 
किन्तु काल की इस अनंत धारा में 
बहता हुआ हो गया वह दानव !

स्वयं को शक्तिशाली समझ 
अन्य जीवों के प्राणों की कीमत पर 
दुर्बलों पर बल प्रयोग कर 
अंतहीन क्षुधा को 
तृप्त करने हेतु 
धरा का किया निरंकुश दोहन 
हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया 
कर अनवरत युद्धों का आयोजन !

कृषकों से भूमि छीनी 
बच्चों के मुख से दूध 
प्रसाधनों के लिए 
निरीह पशुओं को सताया 
 लोभ की पराकाष्ठा हुई अब 
अपरिमित साधन सिमटते ही जाते  
हजारों आज भूखे ही सो जाते 
अब मौसम भी अपने समय पर नहीं आते 
समय रहते चेत जाये 
इसी में उसका भविष्य समाया है 
सृष्टि का वह रखवाला सचेत करने आया है !


बुधवार, फ़रवरी 12

जाने क्यों


जाने क्यों

फूलों के अंबार जहाँ हम काँटों को चुन लेते, सुंदरता की खान जहाँ कुरूपता हम बुन लेते ! देव जहां आतुर नभ में आशीषों से घर भरने, स्वयं को ही समर्थ मान लगते बाधा से डरने ! भेद जरा जाना होता इस अनंत जग में आकर, किसके बल पर टिका हुआ किसे रिझाते गा गाकर ! सुख की आशा में डोले झोली में दुःख भर जाता, ‘मन’ होने का ढंग यही कुछ ना उसे और आता !

सोमवार, नवंबर 24

चम्पा सा खिल जाने दें मन

चम्पा सा खिल जाने दें मन

चलो उठें, अब बहुत सो लिये
सुख स्वप्नों में बहुत खो लिये, 
दुःख दारुण पर बहुत रो लिये
अश्रु से पट बहुत धो लिये !

उठें, करवटें लेना छोड़ें
दोष भाग्य को देना छोड़ें,
नाव किनारे खेना छोड़ें
दिवा स्वप्न को सेना छोड़ें !

जागें दिन चढ़ने को आया
श्रम सूरज बढ़ने को आया,
नई राह गढ़ने को आया
देव हमें पढ़ने को आया !

होने आये जो हो जाएँ
अब न खुद से नजर चुराएँ,
बल भीतर है बहुत जगाएँ
झूठ-मूठ न देर लगाएँ !

नदिया सा बह जाने दें मन
हो वाष्प उड़ जाने दें मन,
चम्पा सा खिल जाने दें मन
लहर लहर लहराने दें मन !