सोमवार, मई 24

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
धरती बाँटी, सागर बाँटे 
अंतरिक्ष भी बाँटा हमने, 
टूट गईं सारी सीमाएं 
जब-जब भी चाहा कुदरत ने !

तूफ़ानों का क्रम कब थमता 
मानव सिंधु-सिंधु मथ डाले,
आसमान में बादल फटते 
सरि पर चाहे बांध बना ले !

रोग नए नित बढ़ते जाते 
पाँच सितारा अस्पताल हैं, 
मौसम भीषण रूप दिखाते 
हिमपात कहीं घोर ज्वाल हैं !

कुदरत पर कुछ जोर न चलता  
मानव कितना हो बलशाली, 
सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
हो ज्ञानवान, वैभवशाली !

कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते 
खुद को ही यह बोध सिखा लें, 
जिस अनंत में ठहरा है सब 
उस अनाम से नजर मिला लें !

7 टिप्‍पणियां:

  1. कुदरत पर कुछ जोर न चलता
    मानव कितना हो बलशाली,
    सृष्टि का रहस्य नहीं जाने
    हो ज्ञानवान, वैभवशाली !---वाह बहुत ही खूबूसूरत रचना है। खूब बधाई

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  2. कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते
    खुद को ही यह बोध सिखा लें,
    जिस अनंत में ठहरा है सब
    उस अनाम से नजर मिला लें !
    बहुत खूब अनीता जी ! प्रकृति पर अतिक्रमण की सभी सीमाएं लांघ कर इंसान अपने आप को निर्दोष कहता है |लेकिन सृष्टि एक रहे है और हमेशा राहेगी | हार्दिक शुभकामनाएं सार्थक रचना के सृजन के लिए

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  3. जी हाँ। कुछ रहस्य तो सदा रहस्य ही बने रहते हैं। शायद उनका रहस्य बना रहना ही बेहतर भी है। अच्छी कविता रची है आपने। अभिनंदन।

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  4. सत्य को संदर्भित करती सुंदर रचना ।

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  5. सृष्टि के रहस्य,गुप्त रहें इसी में सबका कल्याण है अन्यथा मनुष्य ही कर गज़ब ढाने .

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  6. आप सभी सुधीजनों का हृदय से स्वागत व आभार !

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