इक अकुलाहट प्राणों में
इक दुःख की चाहत की है
जो मन को बेसुध कर दे,
कुछ कहने, कुछ ना कहने
दोनों का अंतर भर दे !
इक पीड़ा माँगी उर ने
जो भीतर तक छा जाये,
फिर वह सब जो आतुर है
आने को बाहर आये !
इक बेचैनी सी हर पल
मन में सुगबुग करती हो,
इस रीते अंतर्मन का
कुछ खालीपन भरती हो !
इक अकुलाहट प्राणों में
इक प्यास हृदय में जागे,
सीधे सपाट मरुथल में
चंचल हरिणी सी भागे
इसलिए तो महाजनों ने वरदान में एक-आध पाव दु:ख की कामना करते रहे ताकि प्रभू और स्वयं का स्मरण सतत् होता रहे । अति सुन्दर भाव एवं कथ्य ।
जवाब देंहटाएंसही कहा है अमृता जी, कुंती ने भी कृष्ण से यही प्रार्थना की थी, स्वागत व आभार !
हटाएं"दुःख में सुमिरन सब करै ",अत्यंत प्रभावशाली रचना !!
जवाब देंहटाएंदुःख मन को मांजता है, स्वागत व आभार !
हटाएंकुछ कहने, कुछ ना कहने दोनों का अंतर भर दे। इस जीवन-दर्शन का अपना मूल्य है अनीता जी। अच्छी काव्याभिव्यक्ति है यह आपकी।
जवाब देंहटाएंजब सुनने वाला बिन कहे ही समझ जाये तब ही ऐसा सम्भव है, स्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंसुंदर मनन चिंतन,सुंदर जीवन दर्शन।
जवाब देंहटाएंजीवन में ऐसा चिंतन किसी न किसी मार्ग पर ले ही जाता है ...
जवाब देंहटाएंसही है, स्वागत व आभार!
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