थिर शांत झील में
दूर कहीं जाना नहीं
निज गाँव आना है
संसृति को निहारा
ध्यान अब जगाना है
खुद को बचाया सदा
जीवन के खेल में
भेद सभी खुल गये
खुद को मिटाना है
भोर सदा से जहाँ
मधू ऋतु खिली रहे
भावों के लोक से
गुजर वहाँ जाना है
भ्रम की दीवार गिरे
पुनः आर-पार दिखे
सधे होश कदम उठे
राग मिलन गाना है
युगों युग बीत गए
चक्रव्यूह में घिरे
तोड़ हर राग-द्वेष
पाना ठिकाना है
रहा सदा से वहीँ
सूत भर हिला नहीं
थिर शांत झील में
चाँद को समाना है
दूर नहीं जाना कहीं
निज गाँव आना है
खुद को बचाया सदा जीवन के खेल में; भेद सभी खुल गये, खुद को मिटाना है। अच्छी ग़ज़ल कही अनीता जी आपने।
जवाब देंहटाएंनिज के करीब a सके इंसान तो कितना अच्छा है ...
जवाब देंहटाएंपर ऐसी चाह हो ये भी ज़रूरी ही ...
सही कहा है आपने, भीतर जाने की चाह हो तो राह भी मिल जाती है
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-08-2021) को चर्चा मंच "विज्ञापन में नारी?" (चर्चा अंक 4167) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंबहुतयुगों युग बीत गए
जवाब देंहटाएंचक्रव्यूह में घिरे
तोड़ हर राग-द्वेष
पाना ठिकाना है
रहा सदा से वहीँ
सूत भर हिला नहीं
थिर शांत झील में
चाँद को समाना है।...
सुंदर सृजन।
युगों युग बीत गए
जवाब देंहटाएंचक्रव्यूह में घिरे
तोड़ हर राग-द्वेष
पाना ठिकाना है
वाह!!!!
लाजवाब सृजन
स्वागत व आभार सुधा जी!
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