सोमवार, अक्तूबर 11

भू से लेकर अंतरिक्ष तक


भू से लेकर अंतरिक्ष तक

कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !

कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !

साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 

अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 

कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !

जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

2 टिप्‍पणियां:

  1. कान लगाओ, सुनो जागकर
    वसुधा में अंकुर गाते हैं,
    सागर की उत्ताल तरंगे
    नदियों के भंवर भाते हैं !

    जागें नैना मन भी जागे
    चेतनता कण-कण से फूटे,
    मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के
    हर प्रमाद अंतर से हर ले ! जीवन संदर्भ का सुंदर भावपूर्ण वर्णन ।

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