सोमवार, अक्तूबर 4

अनंत के दर्पण में

अनंत के दर्पण में 


अंतर के तनाव को 

आत्मा के अभाव को 

भावों का रूप बनाकर  

कविता रचती है !

मानो पंक में कमल उगाती  

जीवन में कुछ अर्थ भरती है !

इस अंतहीन दुनिया में 

अरबों मस्तिष्कों के 

 साथ, एक नाता बांधती  

ज्यों अधर में ठहरती है !

अनंत के दर्पण में 

अनायास ही संवरती

बार-बार सच का सामना कराती  

जो अवाक कर दे 

वही बात सुनाती है !

अनावृत हो आत्मा 

गिर जाएँ सारे आवरण 

तभी वह उतरती  

डोलते हुए भंवर में 

टिकने को थल देती है !


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