जाना है उस दूर डगर पर
दिल में किसी शिखर को धरना
सरक-सरक कर बहुत जी लिए,
पंख लगें उर की सुगंध को
गरल बंध के बहुत पी लिए !
जाना है उस दूर डगर पर
जहाँ खिले हैं कमल हजारों,
पार खड़ा कोई लखता है
एक बार मन उसे पुकारो !
जहाँ गीत हैं वहीं छिपा वह
शब्द, नि:शब्द युग्म के भीतर,
भीतर रस सरिता न बहती
यदि छंद बद्ध न होता अंतर !
सागर सा वह मीन बनें हम
संग धार के बहते जाएँ,
झरने फूटें सुर के जिस पल
झरे वही, लय में ले जाये !
रिक्त रहा है जो फूलों से
विटप नहीं वह बन कर रहना,
गंध सुलगती जो अंतर में
वह भी चाहे अविरत बहना !
निशदिन जो बंधन में व्याकुल
मुक्त उड़े वह नील गगन में,
प्रीत झरे जैसे झरते हैं
हरसिंगार प्रभात वृक्ष से !
बहुत सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर ! गहन छाया वादी सृजन गहन अर्थ समेटे
जवाब देंहटाएंअध्यात्म में विलीन होता लेखन।
बहुत सुंदर।
रिक्त रहा है जो फूलों से
जवाब देंहटाएंविटप नहीं वह बन कर रहना,
गंध सुलगती जो अंतर में
वह भी चाहे अविरत बहना !
वाह!!!
बहुत ही सारगर्भित सृजन।
सुधा जी, कुसुम जी, सरिता जी तथा प्रसन्न वादन जी आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...
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